सूर्पनखा-रावण संवाद

जय माँ भारती
नमन अक्षरवाणी परिवार
विधा -छंदबद्ध
छंद- दोहा‌ सह चौपाई
विषय- स्वेच्छिक
तिथि- २३-०१-२०२१
दिवस- शनिवार
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एक वर्ष पूर्व किया गया सृजन.... 

एक दृश्य- रामायण से आज परिमार्जन के पश्चात् पुनर्प्रकाशन...

टिप्पणी-तुलसीदास महराज से मिलेगी नहीं  यदि मिलें तो मात्र संयोग होगा
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सुर्पनखा की  नाक जब ,काटे लक्ष्मण लाल ।
गुस्से में भरकर चली , रावण सम्मुख चाल।।०१।।

         कहने लगी तब भ्रात प्रिय सुन।
         रहती है वन में  एक मुनमुन।।०१।।
         साथ में उसके दो मुनि बालक।
         बनकर  रहते   रक्षक - पालक।।०२।।
         रूपवती    वो    चंद्रमुखी   है।
         किंतु  समय  के साथ दुखी है।।०३।।
         जाकर     मैंने उससे     पूछा ।
         लंकापति  मम  भ्रात  है  दूजा।।०४।।
         व्याह करो रानी बन जाओ।
         लंकापति के हिय में समाओ।।०५।।

         इतना सुन वह क्रोधित होकर।
          पीछे पड़ा लखन कर धोकर।।०६।।
         शक्ति-सशक्त पराक्रम दोनों।
         शत्रु परास्त करें चहुँ कोनों।।०७।।
        होकर  आग  बबूला   लक्ष्मण।
        लिए कृपाण चला सह ऋषि गण।।०८।।
        कान मरोड़ा नाक भी फोड़ा।
        लंका की मर्यादा तोड़ा।।०९।।
        मेघनाद अक्षय सब भड़के
        तभी भिभीषण का दिल धड़के।।१०।।
       लंकेश्वर ने रथ को साजा।
       निकल गया फिर वन को राजा।।११।।
      वायुमार्ग से गुजरे रावण।
      देखा नीचे कुटिया पावन।।१२।।

रोका रथ फिर पास  में , कर विचरण लंकेश।
मारिच सह दोनों किये, परिवर्तित तब  वेश।।०२।।
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आचार्य प्रताप
चित्र- साभार गूगल बाबा
Achary Pratap

समालोचक , संपादक तथा पत्रकार प्रबंध निदेशक अक्षरवाणी साप्ताहिक संस्कृत समाचार पत्र

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