जिस विधा पर आज स्याही बिखेरने जा रहा हूँ
वह है "कह-मुकरी" मैंने इस विधा
को स्वतः अध्ययन करके सीखा है किन्तु कथ्य के सुधर में कई विद्वानों का सहयोग मिला। आज लगभग यह विधा विलुप्त-सी हो गयी है लोग आधार
छंदों में इतनी रचनाएँ करने लगे हैं कि इसका अनुप्रयोग पूर्णतः शून्य हो गया है।
आइए आज हम इस विधा के बारे में जानते है। मुकरियों या कह-मुकरियों
का प्रारम्भ, पहेलियों की तरह ही, अमीर खसरो से माना जाता है। उसी परंपरा को आगे बढाते
हुए भारतेन्दु हरिश्चन्द्रजी ने अपने समय में इनपर बहुत काम किया। उन्होंने इनके माध्यम से हास्य, तीखे व्यंग्य, दर्शन
आदि के साथ-साथ वर्त्तमान सामाजिक-राजनैतिक घटनाओं पर भी लिख कर बेहतर प्रयोग किये
थे। भारतेन्दु जी की कुछ मुकरियाँ जो सुलभ हो पायीं हैं उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ।
भीतर भीतर सब रस चूसै ।
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै ।
जाहिर बातन में अति तेज ।
क्यों सखि साजन ? नहिं अँगरेज !
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सब गुरुजन को बुरो बतावै ।
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।
भीतर तत्व नहिं, झूठी तेजी ।
क्यों सखि साजन ? नहिं अँगरेजी !
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तीन बुलाए तेरह आवैं ।
निज निज बिपता रोइ सुनावैं ।
आँखौ फूटी भरा न पेट ।
क्यों सखि साजन ? नहिं ग्रैजुएट !
-भारतेन्दु हरिश्चन्द्रजी
मेरे
मतानुसार जैसा कि नाम से प्रतीत होता है, कह-मुकरियाँ या मुकरियाँ का सीधा सा अर्थ होता है कही हुई बातों से मुकर
जाना ; और इस विधा में होता भी यही है। ये
चार पंक्तियों की विधा होती हैं, जिसमें पहली तीन पंक्तियाँ किसी संदर्भ या वर्णन को
प्रस्तुत करती हैं, परन्तु स्पष्ट कुछ भी नहीं
होता। चौथी पंक्ति दो वाक्य-भागों में विभक्त हुआ करती हैं। पहला वाक्य-भाग उस वर्णन
या संदर्भ या इंगित को बूझ जाने के क्रम में अपेक्षित प्रश्न-सा होता है, जबकि दूसरा
वाक्य-भाग वर्णनकर्ता का प्रत्युत्तर होता है जो पहले वाक्य-भाग में बूझ गयी संज्ञा
से एकदम से अलग हुआ करता है। यानि किसी और संज्ञा को ही उत्तर के रूप में बतलाता है।
इस लिहाज से मुकरियाँ एक तरह से अन्योक्ति
हैं। कई अन्य विद्वानों के साथ-साथ मेरा भी विचार है कि
यह एक बहुत ही पुरातन और प्राय: लुप्त काव्य विधा है "कह-मुकरी" ! हज़रत अमीर खुसरो द्वारा विकसित इस विधा पर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी स्तरीय काव्य-सृजन किया है। मगर बरसों से इस विधा पर कोई सार्थक काम नहीं हुआ है।
"कह-मुकरी" अर्थात ’कह कर मुकर जाना’ !
वास्तव में इस विधा में दो सखियों के मध्य का संवाद निहित होता है, जहाँ एक सखी अपने प्रियतम को याद करते हुए कुछ कहती है, जिसपर दूसरी सखी बूझती हुई पूछती है कि क्या वह अपने साजन की बात कर रही है तो पहली सखी बड़ी चालाकी से इनकार कर (अपने इशारों से मुकर कर) किसी अन्य सामान्य सी चीज़ की तरफ इशारा कर देती है।
ध्यातव्य है, कि साजन के वर्णित गुणों का बुझवायी हुई सामान्य या अन्य चीज़ के गुण में लगभग साम्यता होती है। तभी तो काव्य-कौतुक उत्पन्न होता है। और, दूसरी सखी को पहली सखी के उत्तर से संतुष्ट हो जाना पड़ता है यानि पाठक इस काव्य-वार्तालाप का मज़ा लेते हैं।
शिल्प व विधान
यह अवश्य है कि कोई रचना और उसके बंद पहले आते हैं उसके बाद बन गयी परिपाटियों को शिल्पगत अनुशासन मिलता है। अमीर खुसरो या भारतेन्दु आदि ने कथ्य और भाव-संप्रेषण पर अधिक ज़ोर दिया। कारण कि ऐसी प्रस्तुतियों का कोई विधान सम्मत इतिहास था ही नहीं। किन्तु, इस विधा में उपलब्ध प्रस्तुतियों के सजग वाचन से इसके शिल्प का अनुमान तो होता ही है। उस आधार पर कुछ बातें अवश्य साझा करना चाहूँगा। एक बात और, ऐसे कई रचनाकार हैं जो हिन्दी के अलावा अन्य भाषाओं में भी कह-मुकरियों पर काम कर रहे हैं। यह स्वागतयोग्य है। लेकिन अधिकांश रचनाकारों के साथ दिक्कत यही है कि वे शिल्प के प्रति एकदम से निर्लिप्त हैं। इसकारण उनकी प्रस्तुतियाँ क्षणिक कौतुक का कारण भले बन जायें,विधागत रचना का मान पाने से वंचित रह जाती हैं। खैर, उपरोक्त सभी मुकरियों के बंद को ध्यान से देखा जाय तो दो बातें स्पष्ट होती हैं::
प्रथम तीन पद या वर्णन-पंक्तियों के माध्यम से साजन या प्रियतम या पति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं, चौथी पंक्ति का प्रथम वाक्य-भाग ऐसा ही बूझ लेने को कहता हुआ प्रश्न भी करता है। परन्तु उसी पंक्ति का दूसरा वाक्य-भाग न सिर्फ़ उस बूझने का खण्डन करता है,अपितु कुछ और ही उत्तर देता है जोकि कवि का वास्तविक इशारा है।
दूसरी बात शिल्प के स्तर पर दिखती है। शब्दों में मात्रिक व्यवस्था के साथ-साथ प्रथम दो पंक्तियाँ सोलह मात्राओं की होती हैं। यानि, प्रथम दो पंक्तियाँ गेयता को निभाती हुई शाब्दिकतः सोलह मात्राओं का निर्वहन करती हैं। तीसरी पंक्ति पन्द्रह या सोलह या सत्तरह मात्राओं की हो सकती है। कारण कि, तीसरी पंक्ति वस्तुतः बुझवायी हुई वस्तु या संज्ञा पर निर्भर करती है। फिर,चौथी पंक्ति दो भागों में विभक्त हो जाती है। तथा चौथी पंक्ति के दूसरे वाक्य-भाग में आये निर्णायक उत्तर से भ्रम या संदेह का निवारण होता है।
कह-मुकरियाँ
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बिन इनके घर लगता सूना।
घर में हों तो दुख हो दूना।
पर वो तो
हैं मन के सच्चे।
क्या सखि
साजन ? न सखी बच्चे।।01।।
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जिसकी
करते सभी प्रतीक्षा।
कसमें
खाते करेंगे रक्षा।
साथ में
आतें कई गवाह
क्या सखी
साजन? नहीं विवाह।।02।।
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मन-मंदिर
में बैठ अकेला।
खोजे
घर-घर जाकर मेला।
जीवन में
भरता यूँहि इत्र।
क्या सखि
साजन? नहीं सखि मित्र।।03।।
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सुर्ख
कपोलों को ये चूमें।
मस्ती
में रहते हैं झूमें।
गीत
सुनाते हैं ये निशचर।
क्या सखि
साजन? न सखि मच्छर।।04।।
------
माँगूँ जब-जब जल भर लाए।
तन-मन की
वो प्यास बुझाए।
मन
है भारी तन है छोटा ।
क्या सखि
साजन? ना सखि लोटा।।05।।
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वो
आए तो व्याह रचाए।
उसके बिन
कुछ रास न आए।
मीठे
लगते उसके बोल।
क्या सखि
साजन? ना सखि ढ़ोल।।06।।
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तुम बिन
जीवन मेरा सूना।
न
मिलने पर दुख हो दूना।
शीघ्र
हरे वो मन की पीर।
क्या सखि
साजन? ना सखि नीर।।07।।
------
मेघ देख
कर मन हर्षाए।
तन-मन
में हरियाली छाए।
करता है
जो तन-मन पावन।
क्या सखि
साजन? ना सखि सावन।।08।।
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तरह-तरह के
जन को लाते।
सारा दिन
उत्पात मचाते।।
रँगते जाते
मेरी चोली।
क्या सखि
साजन? ,ना सखि होली।। 09।।
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आते ही मैं
खुश हो जाती।
इनके बिन
मैं रह ना पाती।।
अच्छे हो
सबके व्यवहार।
क्या सखि
साजन? नहीं त्योहार।।10।।
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गोल कपोलों
को ये चूमें।
मस्ती में
ही रहते झूमे।
दिखलाते हैं
सदा ये प्यार।
क्या सखि
साजन?,नहीं त्योहार।।11।।
---------
एक बार साल
में आए।
नहीं कभी
हम भूल पाए।
हरे गुलाबी
काले लाल।
क्या सखि
साजन? , नहीं गुलाल।।12।।
-------------
होली आती
है हर साल।
जन गण दिखते
काले लाल।
झगड़े करते
हैं चिरकाल।
क्या सखि
साजन? नहीं गुलाल।।13।।
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तन से लिपटे
त्याग न पाऊँ।
श्वेत चदरिया
संग ओढाऊँ।
रोम-रोम चढ़े
ऐसा मीत।
क्या सखि साजन? न सखि शीत।।14।।
----
जब वो ना
हो पास बुलाऊँ।
हो तो
जाने से कतराऊँ।
एकाकी हो
गाऊँ गीत।
क्या सखि
साजन? न सखि शीत।।15।।
--
समय-समय
पर बदले ढंग।
चढ़े
न मुझ पर दूजा रंग ।
अतिप्रिय
लगता शीत व सावन।
क्या सखि
मौसम? न सखि साजन।।16।।
---
प्यार
जता कर पास बुलाए।
सर्दी
तन से दूर भगाए।
अप्रिय
लगे उससे अलगाव।
क्या सखि
साजन? नहीं अलाव।।17।।
----
संग में
तेरे चाय का पीना।
शब्दों
में तेरे ही जीना।
अब तू
मेरा सब शृंगार।
ये सखि
साजन! ना अखबार।।18।।
----
रंग रूप
से लगता प्यारा ।
मुझको
लगता सबसे न्यारा।
रक्तिम
वर्णित करूँ जनाब।
यह सखि
साजन ,नहीं गुलाब।।19।।
----
सदा मुझे
वो पास बुलाए।
मृदुल
नरम अहसास दिलाए।
जाड़े
में लगता अति पावन।
क्या सखि
कंबल ? यह सखि साजन।।20।।
----
मेरे
मन को सदा लुभाए।
पृथक-मृदुल
अहसास दिलाए।
उसके बिन
दृग होते नम।
यह तो
साजन ! नहीं ये मौसम।।21।।
जिसकी
तेजी को मन तरसे।
मिले
नहीं तो दृगजल बरसे।
शरद-शिशिर
तक लगे अनूप।
क्या सखि प्रियतम? ना सखि धूप।।22।।
------
बातें
उनकी मन हर्षाएँ।
जटिल समस्या हल कर जाएँ।
उत्कृष्ट कहूँ मैं पूरा
है हक।
क्या सखि साजन? ना सखि
पुस्तक।।23।।
-----
माँगूँ जब-जब जल भर लाए।
तन-मन की वो प्यास बुझाए।
मन है
भारी तन है छोटा ।
क्या सखि साजन? ना सखि
लोटा।।24।।
------
वो आए तो व्याह रचाए।
उसके
बिन कुछ रास न आए।
मीठे
लगते उसके बोल।
क्या
सखि साजन? ना सखि ढ़ोल।।25।।
------
न
मिलने पर दुख हो दूना।
शीघ्र
हरे वो मन की पीर।
क्या
सखि साजन? ना सखि नीर।।26।।
------
मेघ
देख कर मन हर्षाए।
तन-मन
में हरियाली छाए।
करता
है जो तन-मन पावन।
क्या
सखि साजन? ना सखि सावन।।27।।
--------
ऐसी हरकत मुझे न भाए।
करता रहता मुझे ये तंग
क्या सखि साजन? नहिं सखि पलंग।।28।।
-आचार्य प्रताप
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