"वनवास": परिवारिक बंधनों की त्रासदी और आत्मसम्मान की पुनर्प्राप्ति

अनिल शर्मा द्वारा निर्देशित "वनवास" वृद्धावस्था में अकेलेपन और परित्याग की पीड़ा को दर्शाती एक भावनात्मक यात्रा है, जिसमें परिवारिक मूल्यों के विघटन और मानवीय संवेदनाओं की परख की जाती है। नाना पाटेकर के नेतृत्व में, यह फिल्म हमें वृद्ध माता-पिता के उस दर्द से रूबरू कराती है, जिसे उन्हें अपने ही बच्चों के हाथों झेलना पड़ता है। अंत में जीवन और मृत्यु के बीच के संबंध को एक नए आयाम से प्रस्तुत करते हुए, फिल्म मानवीय रिश्तों की जटिलता और नए बंधनों की शक्ति को उजागर करती है।
"वनवास" का कथानक एक परिचित मार्ग पर चलता है, जहां त्यागी (नाना पाटेकर) एक सेवानिवृत्त वृद्ध व्यक्ति हैं, जो एडवांस डिमेंशिया से ग्रसित हैं। अपनी पत्नी विमला के निधन के बाद से, उनका जीवन उदासी और अकेलेपन में सिमट गया है। अपनी दिवंगत पत्नी की स्मृति को जीवित रखने के लिए, त्यागी अपने घर 'विमला सदन' को एक ट्रस्ट में परिवर्तित करना चाहते हैं, ताकि समाज सेवा के साथ-साथ उनकी पत्नी की स्मृतियां भी जीवित रह सकें।
मगर उनके तीन लालची बेटे, जो केवल संपत्ति और धन पर नज़र रखते हैं, किसी भी कीमत पर अपने पिता के इस निर्णय का विरोध करते हैं। वे न केवल अपने पिता के इस सद्कार्य को रोकना चाहते हैं, बल्कि उनसे छुटकारा पाने और संपत्ति हड़पने के इरादे से एक षड्यंत्र रचते हैं। वे त्यागी को बनारस ले जाकर वहां अकेला छोड़ देते हैं और उनकी मृत्यु की झूठी खबर फैला देते हैं।
यहीं से शुरू होती है त्यागी की वास्तविक 'वनवास' की यात्रा, जो रामायण के प्रसंग से प्रेरित लगती है। बनारस में, त्यागी की मुलाकात बीरु वालियंटर (उत्कर्ष शर्मा) से होती है - एक ऐसा व्यक्ति जो शुरू में त्यागी को लूटता है, लेकिन बाद में उनकी मार्मिक कहानी सुनकर उनके जीवन में एक नई उम्मीद की किरण बनकर आता है। बीरु, अपनी प्रेमिका बीना (सिमरत कौर रंधावा), अपने दोस्त राजपाल यादव और बीना की मौसी अश्विनी कालसेकर के साथ मिलकर त्यागी को उनके परिवार के पास वापस लाने का मिशन शुरू करता है।
फिल्म में कई ऐसे भावनात्मक दृश्य हैं जो दर्शकों की आंखों को नम कर देते हैं। त्यागी का अपने घर से निकाले जाने का दृश्य विशेष रूप से मार्मिक है। नाना पाटेकर ने इस दृश्य में अपनी आंखों से निकलने वाले आंसुओं के माध्यम से एक ऐसी पीड़ा को व्यक्त किया है, जिसके लिए शब्द अपर्याप्त लगते हैं। उनका भरा-पूरा घर, जिसमें उन्होंने अपने सपने बुने थे, उनके लिए एक अजनबी जगह बन जाता है।
बनारस के घाट पर त्यागी का अकेलेपन भी एक ऐसा दृश्य है, जिसमें कबीर लाल की सिनेमैटोग्राफी का जादू देखने को मिलता है। सुबह की पहली किरण के साथ गंगा में डुबकी लगाने वाले श्रद्धालुओं के बीच एक बेसहारा वृद्ध व्यक्ति की छवि मन को छू लेती है। यह दृश्य मूक है, लेकिन इसमें व्यक्त भावनाएं कई कहानियां कहती हैं।
एक अन्य भावनात्मक क्षण तब आता है जब त्यागी अपनी पत्नी की तस्वीर से बातें करते हैं। उनका विमला से संवाद, उन्हें बताना कि उनके बेटे कैसे हैं और कैसे उन्होंने उनके साथ धोखा किया, हर किसी के दिल को छू लेता है। नाना पाटेकर ने इस दृश्य में अपनी संवेदनशीलता का ऐसा प्रदर्शन किया है, जो फिल्म के सबसे यादगार क्षणों में से एक बन जाता है।
फिल्म का सबसे अधिक मार्मिक दृश्य है जब त्यागी बर्फ की बारिश के बीच अपना स्वयं का पिंडदान करते हैं। इस दृश्य में नाना पाटेकर संस्कृत में मंत्रोच्चारण करते हुए, एक ऐसे व्यक्ति के अकेलेपन का चित्रण करते हैं जिसे अपने अंतिम संस्कार के लिए भी कोई नहीं मिला। अंतिम मंत्र बोलने के बाद जब वे खड़े होकर बिलख पड़ते हैं, तो यह दृश्य दर्शकों के हृदय को झकझोर कर रख देता है। यह क्षण फिल्म का सबसे शक्तिशाली बिंदु है, जो परित्यक्त वृद्धों की पीड़ा को सटीकता से चित्रित करता है।
फिल्म का संगीत भावनाओं को और गहराई देता है। टाइटल ट्रैक "वनवास" एक ऐसा गीत है, जो त्यागी की पीड़ा और उनके अकेलेपन को शब्दों में पिरोता है। इसमें व्यक्त भावनाएं त्यागी के दर्द को और अधिक मार्मिक बनाती हैं।
"गीली माचिस" गाना फिल्म का एक और उल्लेखनीय संगीत है, जो बीरु और बीना के प्रेम को दर्शाता है। यह गाना फिल्म में एक राहत की तरह आता है और दर्शकों को भावनात्मक रूप से थोड़ी राहत देता है।
फिल्म में एक और गाना है, जिसमें त्यागी अपनी पत्नी की यादों में खोए हुए दिखाई देते हैं। यह गाना विमला और त्यागी के बीच के प्यार और उनकी यादों को दर्शाता है, जिससे त्यागी की वर्तमान स्थिति और भी दयनीय लगती है।
नाना पाटेकर ने त्यागी के किरदार को जिस तरह से निभाया है, वह सराहनीय है। उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति की भूमिका को जीवंत किया है, जो अपने ही बच्चों के हाथों धोखा खाता है। उनकी आंखों में दिखने वाला दर्द, उनकी आवाज़ में झलकती हुई निराशा और उनके चेहरे पर छाई हुई उदासी दर्शकों के दिल को छू लेती है। पिंडदान के दृश्य में उनका अभिनय अद्वितीय है, जहां वे बिना किसी संवाद के केवल अपने भाव-भंगिमाओं से एक वृद्ध व्यक्ति की निःसहायता और टूटन को दर्शाते हैं।
उत्कर्ष शर्मा ने बीरु के किरदार को बखूबी निभाया है। एक ऐसा व्यक्ति, जो शुरू में स्वार्थी लगता है, लेकिन बाद में त्यागी के दर्द को समझकर उनकी मदद करने का फैसला करता है। उत्कर्ष और नाना की केमिस्ट्री फिल्म के मुख्य आकर्षणों में से एक है। विशेष रूप से, अंतिम दृश्य में जब बीरु त्यागी को पिंडदान के लिए डांटते हुए कहता है, "बेटा हूं, बेटा कहते हो तो आपका पिंडदान करने का हक सिर्फ और सिर्फ मेरा है, और मैं आपका पिंडदान मणिकर्णिका घाट बनारस में करूंगा।" यह क्षण उनकी अभिनय क्षमता का उत्कृष्ट उदाहरण है।
सिमरत कौर रंधावा ने बीना के किरदार को सहजता से निभाया है। वह एक ऐसी लड़की है, जो अपने प्रेमी बीरु के साथ-साथ त्यागी की मदद करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
राजपाल यादव और अश्विनी कालसेकर ने अपने हास्य अभिनय से फिल्म में कुछ हल्के-फुल्के पल जोड़े हैं, जो फिल्म के भावनात्मक प्रवाह में एक राहत की तरह आते हैं।
अनिल शर्मा ने "वनवास" का निर्देशन अपनी विशिष्ट शैली में किया है। उनकी भव्य टेकिंग और विस्तृत दृश्यों की प्रस्तुति यहां भी देखने को मिलती है। बनारस के घाटों, गलियों और मंदिरों का चित्रण फिल्म को एक अलग सौंदर्य प्रदान करता है।
कबीर लाल की सिनेमैटोग्राफी फिल्म का एक मजबूत पक्ष है। बनारस के चटकीले रंगों और प्राकृतिक सौंदर्य को उन्होंने बखूबी कैमरे में कैद किया है। विशेष रूप से, टॉप एंगल से गिरती बर्फ के दृश्य और बनारस के घाटों का चित्रण दर्शकों को एक अलग दुनिया में ले जाता है। पिंडदान के समय बर्फ की बारिश का दृश्य अद्भुत है, जिसमें प्रकृति भी मानो त्यागी के दर्द में शामिल होती प्रतीत होती है।
हालांकि "वनवास" भावनात्मक रूप से एक मजबूत फिल्म है, फिर भी इसमें कुछ कमियां हैं। फिल्म की गति कई जगहों पर धीमी और खिंची हुई लगती है, जो दर्शकों के धैर्य की परीक्षा लेती है। कई सब-प्लॉट्स, जैसे बीरु और बीना का प्रेम प्रसंग, मुख्य कहानी के प्रवाह में बाधा उत्पन्न करते हैं।
साथ ही, फिल्म की कहानी में नवीनता का अभाव है। "स्वर्ग" और "बागबान" जैसी फिल्मों ने पहले ही इस तरह के विषयों को बड़े पर्दे पर प्रस्तुत किया है, जिससे "वनवास" में उस ताजगी का अभाव महसूस होता है, जो एक नई कहानी में होती है।
फिल्म का अंत अद्वितीय रूप से भावनात्मक और दार्शनिक है। एक अत्यंत हृदयस्पर्शी दृश्य में, जब बर्फ की बारिश के बीच त्यागी अपना खुद का पिंडदान करते हैं, दर्शक भावनाओं के एक नए स्तर पर पहुंच जाते हैं। संस्कृत मंत्रों के उच्चारण के साथ, त्यागी अपने जीवन के समापन को स्वीकार करते दिखाई देते हैं। इस दृश्य की वास्तविक पीड़ा तब सामने आती है जब वे, अपना मंत्रोच्चारण समाप्त करने के बाद, खड़े होकर बिलख पड़ते हैं - एक ऐसा व्यक्ति जिसे अपने अंतिम संस्कार के लिए भी कोई नहीं मिला।
इस मार्मिक क्षण को बीरु के साथ साझा करते हुए, त्यागी अपनी निराशा व्यक्त करते हैं। यहां फिल्म का सबसे शक्तिशाली मोड़ आता है - बीरु, जो अब त्यागी को एक पिता-तुल्य मानता है, गुस्से और प्यार के मिश्रित भाव से कहता है, "बेटा हूं, बेटा कहते हो तो आपका पिंडदान करने का हक सिर्फ और सिर्फ मेरा है। मैं आपका पिंडदान मणिकर्णिका घाट बनारस में करूंगा।" यह पल दोनों के लिए मुक्तिदायी साबित होता है - त्यागी के लिए यह एक पुत्र का पुनः मिलना है, और बीरु के लिए एक पिता का आशीर्वाद।
दोनों की हंसी के बीच, त्यागी शांति से अपनी आंखें बंद कर लेते हैं, अपने जीवन के अंतिम क्षणों में एक वास्तविक पुत्र का प्यार पाकर। यह मृत्यु का क्षण होते हुए भी, जीवन की पूर्णता का प्रतीक बन जाता है।
फिल्म का अंतिम दृश्य, जिसमें बीरु 'विमला सदन' को खरीदकर उसे वृद्ध आश्रम और अनाथ आश्रम में परिवर्तित करता है, त्यागी के सपनों की पूर्ति और उनकी विरासत को आगे बढ़ाने का प्रतीक है। यह दिखाता है कि परिवार केवल खून के रिश्तों तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि यह उन लोगों से भी बनता है, जो हमारे दिल के करीब होते हैं और हमारे मूल्यों को आगे बढ़ाते हैं।
"वनवास" एक ऐसी फिल्म है, जो वृद्धावस्था में माता-पिता के परित्याग और अकेलेपन के मुद्दे को उठाती है। यह हमें याद दिलाती है कि परिवार में प्यार, सम्मान और समझदारी का कितना महत्व है। भले ही फिल्म की कहानी में नवीनता का अभाव हो और इसकी गति कई जगहों पर धीमी हो, फिर भी नाना पाटेकर का शानदार अभिनय, अनिल शर्मा का निर्देशन और कबीर लाल की सिनेमैटोग्राफी इसे एक देखने योग्य फिल्म बनाती है।
फिल्म का सबसे यादगार हिस्सा, बर्फ की बारिश के बीच त्यागी द्वारा अपना पिंडदान करना और फिर बीरु के साथ उनका अंतिम वार्तालाप, हिंदी सिनेमा के सबसे मार्मिक दृश्यों में से एक है। नाना पाटेकर ने इस अंतिम दृश्य में अभिनय के चरम पर पहुंचकर दिखाया है कि कैसे एक अच्छा अभिनेता संवादों से परे भी दर्शकों की भावनाओं को छू सकता है। उत्कर्ष शर्मा के साथ उनकी केमिस्ट्री इस दृश्य में चरम पर पहुंच जाती है, जहां एक हंसी के बीच जीवन का अंत आ जाता है - एक ऐसा दृश्य जो दर्शकों के मन में लंबे समय तक रहेगा।
बीरु द्वारा 'विमला सदन' को वृद्ध आश्रम और अनाथ आश्रम में बदलना फिल्म के चक्र को पूरा करता है, जहां त्यागी का सपना उनके शारीरिक अंत के बाद भी जीवित रहता है, एक ऐसे व्यक्ति के माध्यम से जो रक्त से नहीं, बल्कि आत्मा से उनका पुत्र बन गया।
अंत में, "वनवास" हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करते हैं और क्या हम उन्हें वह सम्मान और प्यार देते हैं, जिसके वे हकदार हैं। यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि बुढ़ापा हम सभी का भविष्य है, और हमें अपने बुजुर्गों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा हम चाहते हैं कि हमारे साथ किया जाए। साथ ही, यह फिल्म सिखाती है कि परिवार सिर्फ खून के रिश्ते ही नहीं होते, बल्कि वे बंधन भी होते हैं जो प्यार और सम्मान से बनते हैं, जैसा कि त्यागी और बीरु के बीच देखने को मिलता है।
-आचार्य प्रताप