दोहा

वैसे दोहा आजकल बहु चर्चित विधा है इस बहु चचित विधा में लीन इस दोहा भक्त आचार्य प्रताप  ने अपने  आलेखों में बताया कि दोहा क्या है

इसकी नियमवाली भी दोहो में ही बना डाली आइये एक बार नियम और नियमावली पढ़ते है फिर दोहों की तरफ बढ़ते हैं।

                प्राचीन काल के ग्रंथों में संस्कृत में कई प्रकार के छन्द मिलते हैं जो वैदिक काल के जितने प्राचीन हैं। वेद के सूक्त भी छन्दबद्ध हैं। पिंगल द्वारा रचित छन्दशास्त्र इस विषय का मूल ग्रन्थ है। छन्द पर चर्चा सर्वप्रथम ऋग्वेद में हुई है। यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो कविता की कसौटी छन्दशास्त्रहै। पद्यरचना का समुचित ज्ञान छन्दशास्त्र की जानकारी के बिना नहीं होता। काव्य ओर छन्द के प्रारम्भ में अगणअर्थात अशुभ गणनहीं आना चाहिए। छन्दशास्त्र  में दोहा, अर्द्धसम मात्रिक  छंद है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) में १३-१३ मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में ११-११ मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के आदि में प्राय: जगण (। ऽ।) टालते है, लेकिन इस की आवश्यकता नहीं है। ।

शिल्प व विधान

1.    मेरा मानना है कि दोहा कविता की एक ऐसी छोटी विधा है जिसमे  कवि अपनें भावों को चार चरणों  या दो पंक्तियों में कह देता है ,

दोहा सरल उपाय है, कहना मन की बात।
चार चरण दो पंक्तियां, करें बड़ा आघात।।01।।

                                                                   :-प्रताप

2.    इसमें कुल ४८ मात्राएँ होती है विषम चरणों  (प्रथम- तृतीय ) १३-१३ और सम चरणों ( द्वितीय-चतुर्थ ) ११-११ मात्राएँ होती हैं।

लिखने से पहले पढ़ो , दोहा छंद विधान।
तेरह-ग्यारह विषम सम, दोहों की पहचान।।02।।
-
विषम चरण तेरह रखो , ग्यारह सम लो जान।
लिखता आज "प्रताप" फिर , दोहा छंद विधान।।03।।

-

दोहा लिखना सरल है ,तेरह ग्यारह मेल।
बच्चे-बूढ़े सब कहें, यह बच्चों का खेल।।04।।
                                                         :-प्रताप

3.    मेरा ही नहीं बकीं सब दिग्गज दोहाकारों का मानना है कि दोहे की शुरुआत  जगण अर्थात मात्रा भार १२१ से आरम्भ न हो अन्यथा लय बाधित  होने का डर बना रहता है, ऐसा नहीं जय कि समस्त जगण  से आरम्भ होने वाले  दोहे दोषयुक्त होते हैं नहीं ऐसा नहीं है उनका निदान है। 

 

उदाहरण-

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागैं अति दूर।।

                                                 :- कबीर

शुरू करें मत जगण से , दोहा छंद विधान।
शुरू कभी यदि हो गया,लय का रखना ध्यान।।05।।

                                                                  :-प्रताप

4.    मेरे शोध के अनुसार चारों चरणों की ग्यारहवीं मात्राएँ लघु ही दिया जाना चाहिए जिससे दोहों में लय की  प्रवाहता बनीं रहे।

विषम चरण की बात रख, दोहों का सम्मान।
मात्राओं में ग्यारवीं , रखना लघु का ध्यान।।06।।

-

दोहा छंद विधान है , मात्राओं का खेल।
सभी चरण में ग्यारवीं , मात्रा लघु का मेल।।14।।

                                                :-प्रताप

5.    सम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है अर्थात अन्त में लघु होता है

विषम चरण के अंत में ,लघु-गुरु रखना ध्यान। 
सम चरणों के अंत में , गुरु-लघु लो तुम जान।।07।।

                                                        :-प्रताप

6.    मुझे मेरे शोधात्मक और प्रयोगात्मक अनुभवों से ऐसा ज्ञात होता है कि देशज शब्दों को कड़ी बोली में प्रयोग नहीं करना चाहिए। क्योंकि मैं तो उसका अर्थ जनता हूँ किन्तु क्या पता की पाठक उसका अर्थ जनता है या नहीं। देशक का अर्थ है की वह की क्षेत्रीय भाषा या लोकल लैंग्वेज। उदाहरण के लिए मुझे हिंदी की सहायक भाषा बघेली, हैदराबादी उर्दू और तेलंगाणा की राज्य स्तारीय भाषा तेलुगू का ज्ञान है लेकिन हमारे पाठकों को नहीं तो समस्या यह होगी की वो उस एक या दो शब्द के लिए या तो शब्दकोष  खरीदें या ऐसे व्यकिती की तलाश करें जो उस भाषा का जानकार हो अतः देशज भाषा का प्रयोग न के बराबर करना चाहिए।

देशज  शब्दों का सफर ,  देशज  तक  ही  रख्ख।
श्रेष्ठ सृजन के हेतु कुछ, तत्सम शब्द परख्ख।।08।।

:-प्रताप

7.    लघु,गुरु,तुक,लय,चरण, यति, गति को विशेष ध्यान में रखते हुए लिखना चाहिए ऐसा नहीं की बस तेरह- ग्यारह , तेरह- ग्यारह रख दिया बस हो गया काम नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है।  लघु,गुरु,तुक,लय,चरण, यति, गति का विशेष ध्यान देना चाहिए।

दोहा   छंद    विधान    की   ,    सही  करें   पहचान ।
लघु,गुरु,तुक,लय,चरण, यति , सत्य रखें नित ध्यान।।09।।

-

लक्ष्य सतसई को बना , दोहे लिखो हजार।

यति-गति लय औ' नियम का , ध्यान रखो हर बार।।10।।
                                                          :-प्रताप

8.   बस इन्हीं नियमों के आधार पर दोहे लिखे जा सकते है , किन्तु उसके लिए पढ़ना अत्यंत आवश्यक है मेरा मानना है की जब एक हजार दोहे पढ़ लो तब एक या दो सृजन करो फिर करते जाओ करते जाओ सफता सदैव चरण चूमेंगी।

दोहा लेखन के लिए, करें बहुत अभ्यास।
गुणींजनो से सीखकर , करते रहो प्रयास।।11।।
=
सरगम सरगम लय मिले , सरगम सरगम सार।
सरगम के इस भाव से , नहीं मानिए हार।।12।।

                                                                   :-प्रताप

गुरुदेव आदरणीय डॉ बिपिन पाण्डेय जी के द्वारा प्रदत्त जानकारी तथा शोध के अनुसार शिल्प और विधान की विस्तृत रूप-रेखा

इस छंद के विषम चरणों का आरंभ एकल स्वतंत्र शब्द ,जिसमें जगण (।ऽ।) हो, से करना वर्जित माना जाता है।विषम चरणों के अंत में यदि नगण ( ।।। ) या रगण ( ऽ।ऽ) हो तो छंद में प्रवाहमयता बनी रहती है।सम चरणों का अंत सदैव दीर्घ लघु (ऽ।) से ही होता है।
दोहे के प्रत्येक चरण में मात्र मात्रा भार पूर्ण कर देने से दोहा सृजन संभव नहीं होता, अर्थात प्रथम और तृतीय चरण में 13-13 मात्राएँ द्वितीय और चतुर्थ चरण में 11-11 मात्राएँ पूर्ण कर देने से दोहे की रचना नहीं हो जाती। इसके लिए यह आवश्यक है कि मात्राओं की पूर्णता के साथ- साथ लयात्मकता भी हो। यदि मात्राएँ पूर्ण हैं और प्रवाहमयता का अभाव है तो दोहा नहीं बनता है।अतः दोहे की रचना के लिए मात्रा भार और लय दोनों का ध्यान रखना चाहिए।

मात्रा भार

छंद बद्ध रचना के लिए मात्रा भार का ज्ञान होना आवश्यक होता है। मात्रा भार की गणना दो आधारों पर की जाती है –

1.    वर्णिक

2.    वाचिक

दोहा छंद में मात्राओं की गणना वर्णिक आधार पर की जाती है,इसमें वर्णों की मात्राओं को गिना जाता है, जबकि गीतिका, गज़ल जैसे छंदों में वाचिक आधार पर। यदि रचनाकार को मात्रा भार गणना की सही और सटीक जानकारी नहीं होती तो शुद्ध छांदस रचना संभव नहीं हो पाती। नवांकुरों को ध्यान में रखते हुए मात्रा भार की गणना की संक्षिप्त जानकारी देने का प्रयास किया जा रहा है-

I.         समस्त हृस्व स्वरों की मात्रा 1 होती है,जिसे शास्त्रीय भाषा में लघु कहा जाता है

,,उ और ऋ की मात्रा 1 (लघु) होती है।

II.        सभी दीर्घ स्वरों की मात्रा 2 होती है,जिसे पारिभाषिक शब्दावली में दीर्घ कहते हैं।

  ,,,,,,,अं और अः की मात्रा दीर्घ होती है।

III.        क से ह तक के व्यंजनों की मात्रा 1 होती है। यदि व्यंजनों के साथ हृस्व स्वर- अ,,उ और ऋ की मात्रा का योग किया जाता है तो भी उनका मात्रा भार 1 ही रहता है।

IV.        संयुक्त व्यंजन - क्ष ,त्र एवं ज्ञ का मात्रा भार 1 ही होता है यदि इनका प्रयोग शब्द के आरंभ में होता है;

जैसे - क्षमा =12, षडानन =1211, श्रम =11

V.        विशेष जानकारी à यदि इन संयुक्त व्यंजनों का प्रयोग शब्द के बीच में या अंत में होता है तो संयुक्त व्यंजन के पूर्व का शब्द दीर्घ हो जाता है

जैसे - यज्ञ = 21, कक्षा = 22, सक्षम = 211, क्षत्रिय =211

VI.        यदि व्यंजनों के साथ दीर्घ स्वर-आ,,,,,, और अं , अः प्रयुक्त होने पर मात्रा भार 2 होता है।

VII.        यदि गुरु वर्ण के साथ अनुनासिक चंद्रबिंदु   ( ँ ) / अनुस्वार { बिंदु (ं) } का प्रयोग होता है तो मात्रा भार 2 ही रहता है।

VIII.        किसी भी वर्ण के साथ अनुनासिक का प्रयोग करने से मात्रा भार में कोई परिवर्तन नहीं होता; जैसे-  पहुँच= 111, माँ- 2, छाँव-21

IX.        जिन शब्दों के पूर्व में अर्ध व्यंजन का प्रयोग होता है उस अर्ध व्यंजन की गणना नहीं की जाती है; जैसे-प्यार =21, स्नेह =21, क्लेश =21

X.        यदि अर्ध वर्ण का प्रयोग दो वर्णों के बीच में होता है तो वह पूर्ववर्ती वर्ण को दीर्घ कर देता है अगर पूर्ववर्ती वर्ण हृस्व है; जैसे- 
शब्द = 21,अच्छा= 22, मिट्टी= 22

XI.        अगर अर्ध वर्ण का प्रयोग ऐसे किसी वर्ण के पश्चात होता है जो पहले से ही दीर्घ है तो वह दीर्घ ही रहता है और पश्चातवर्ती अर्ध वर्ण कोई प्रभाव नहीं डालता अर्थात वह दीर्घ ही रहता है; जैसे- 
ऊर्जा =22, ऊर्मि = 21, कीर्तन = 211, प्रार्थना= 212

XII.        कुछ अपवादात्मक स्थितियाँ भी होती है,जहाँ अर्ध व्यंजन पूर्ववर्ती वर्ण के साथ संयुक्त होने के बजाय पश्चातवर्ती वर्ण के साथ जुड़कर उसे दीर्घ बना देता है। ऐसा मात्र शब्द में अर्ध वर्ण के उच्चारण के कारण होता है; जैसे-  तुम्हारे, तुम्हें,जिन्हें, जिन्होंने, कुम्हार, कन्हैया आदि। इन शब्दों में म् का उच्चारण हा के साथ होता है न कि तु के साथ ।

XIII.        हिंदी में कुछ शब्दों जैसे- स्नान,स्मित, स्थाई,ऊर्जा, ऊष्मा आदि के लिखित रूप उच्चारणगत रूप में अंतर होता है या यूँ कहें कि लोगों के द्वारा किए जाने वाले अशुद्ध उच्चारण के कारण वाचन में मात्रा ठीक परंतु लेखन में कम ज्यादा होने लगता है।चूँकि मात्राओं की गणना लेखन रूप के आधार पर की जाती है।अतः ऐसे शब्दों का प्रयोग करते समय पूर्ण सावधानी बरतें और एक बार मात्रा भार की गणना अवश्य करें।
अब बात आती है तुकांत की -
प्रत्येक छंद में तुकांत का पालन एक निश्चित व्यवस्था के अंतर्गत करना होता है। दोहा छंद, जिसमें द्वितीय और चतुर्थ चरण के अंत में तुक का विधान होता है, तुकांत नियम का पालन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है -
तुकांत को समझने के लिए एक दोहा छंद का उदाहरण लिया जा सकता है-
     बहते नल  को  देखकर , करता  क्यों  परिहास।

     ज्ञात नहीं जिस व्यक्ति को,कैसी होती प्यास।।

                                                     -प्रताप

यहाँ तुकांत को समझने के लिए द्वितीय और चतुर्थ चरण के अंतिम शब्द दृष्टव्य हैं-
  परिहास = परि+ह् +  आस

     प्यास =       प्य् +  आस
इन दोनों चरणों के अंत में आस सामान्य रूप में विद्यमान है,जो कि प्रत्येक परिस्थिति में अपरिवर्तनीय है। इसे अचर कहा जा सकता है। इनके पूर्व आने वाले व्यंजन ह् और प्य् परिवर्तनीय होते है ,जिन्हें चर कहा जा सकता है ।
तुकांत का प्रयोग करते समय ऐसे शब्दों का चयन किया जाना चाहिए जो कि चर और अचर दोनों ही दृष्टियों से पृथक हों।
मात्र शब्द और उसका अर्थ अलग होने से तुकांत छंद में आनंद और प्रभविष्णुता में वृद्धि नहीं करते।  दोहे के एक चरण में यदि वेश और दूसरे में परिवेश शब्द का तुक के रूप में प्रयोग करने से चर परिवर्तित नहीं होता-
वेश = व् + एश
परिवेश= परि+ व् +एश
इसी तरह अन्य शब्दों को लिया जा सकता है; जैसे -
मान, सम्मान, अपमान ; देश , विदेश, परदेश; दान , अवदान; ज्ञान, विज्ञान आदि
            इस तरह के शब्दों का तुकांत के रूप प्रयोग करने से बचने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि ऐसे शब्दों में चर और अचर मूलतः एक ही होते हैं।अंतर मात्र शब्द के साथ जुड़े उपसर्ग के कारण दृष्टिगत होता है।ऐसे शब्दों का तुकांत के रूप में करने से न तो काव्यानंद में अभिवृद्धि होती है और न ही रोचकता में।
       ध्यातव्य है कि चरणांत में तुक का विधान एक जैसा ही रखना उचित होता है।वर्णागत भिन्नता सौंदर्य को प्रभावित करती है तथा छंद विधान के अनुरूप भी नहीं होती; जैसे - यदि दोहे प्रथम चरण के अंत में तुक 'शेष' का प्रयोग किया गया है तो दूसरे पद के अंत में 'वेश' शब्द द्वारा तुक नहीं मिलाया जा सकता क्योंकि एक का अचर- एष है जबकि दूसरे का अचर- एश दोनों पर्याप्त भिन्न हैं। इसी तरह अन्य शब्दों - दोष, जोश जैसे शब्दों को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है।
          तुकांत के जिन शब्दों के साथ अनुनासिक या अनुस्वार का प्रयोग होता है उनके लिए भी ऐसे ही किसी शब्द का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है जिसमें अनुनासिक या अनुस्वार हो; जैसे - दोहे के द्वितीय चरण के अंत में यदि 'बूँद' शब्द तुक के रूप में प्रयुक्त है तो चतुर्थ चरण के अंत में मूँद जैसे किसी शब्द का प्रयोग करना होता है। 'बूँद' का तुक 'कूद' से नहीं मिलाया जा सकता।

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मैं तो दोहों के बारे में पहले इतना ही जानता था कि दोहा , दोहा होता है कितने प्रकार होतें है इसका ज्ञान तो तब चला शोध की गहराई में गया तो कुछ विशिष्ट विद्वजों व पुस्तकों को पढ़ने के बाद दोहों के प्रकार -
प्रत्येक पद में गुरु लघु मात्राओं की संख्या के आधार पर दोहों के 23 प्रकार निर्धारित किए गए हैं, जो कि निम्नवत हैं- 


1.भ्रमर दोहा - 22 गुरु वर्ण और 4 लघु वर्ण

2.सुभ्रमर दोहा- 21गुरु वर्ण और 6लघु वर्ण

3. शरभ दोहा- 20 गुरु वर्ण और 8 लघु वर्ण

4. श्येन दोहा- 19 गुरु वर्ण और 10 लघु वर्ण

5.मण्डूक दोहा- 18 गुरु वर्ण और 12 लघु वर्ण

6. मर्कट दोहा-17 गुरु वर्ण और 14 लघु वर्ण 

7.करभ दोहा- 16 गुरु वर्ण और 16 लघु वर्ण 

8.नर दोहा- 15 गुरु वर्ण और 18 लघु वर्ण 

9. हंस दोहा -14 गुरु वर्ण और 20 लघु वर्ण 

10. गयंद दोहा- 13 गुरु वर्ण और 22 लघु वर्ण 

11. पयोधर दोहा- 12 गुरु वर्ण और 24 लघु वर्ण 

12. बल दोहा- 11 गुरु वर्ण और 26 लघु वर्ण 

13. पान दोहा- 10 गुरु वर्ण और 28 लघु वर्ण 

14. त्रिकल दोहा- 9 गुरु वर्ण और 30 लघु वर्ण 

15. कच्छप दोहा- 8 गुरु वर्ण और 32 लघु वर्ण 

16. मच्छ दोहा- 7 गुरु वर्ण और 34 लघु वर्ण 

17. शार्दूल दोहा- 6 गुरु वर्ण और 36 लघु वर्ण 

18.अहिवर दोहा- 5 गुरु वर्ण और 38 लघु वर्ण 

19. व्याल दोहा- 4 गुरु वर्ण और 40 लघु वर्ण 

20. विडाल दोहा- 3 गुरु वर्ण और 42 लघु वर्ण 

21. श्वान दोहा- 2 गुरु वर्ण और 44 लघु वर्ण 

22. उदर दोहा- 1 गुरु वर्ण और 46 लघु वर्ण 

23. सर्प दोहा- 0 गुरु वर्ण और 48 लघु वर्ण

 

किंतु मेरा मानना है कि जब अंतिम दो प्रकार उदर दोहा तथा सर्प दोहा , दोहों के नियम/आयाम पर खरा नहीं उतरता तो इसे दोहे की श्रेणी में क्यों स्वीकार करें वैसे तो बहु विद्वजों ने इस विधान पर स्याही प्रवाहित की है -

उपर्युक्त दोहों के शिल्प विधान से स्पष्ट है कि कुछ दोहे तो स्वाभाविक रूप में अनायास शिल्पबद्ध हो जाते हैं परंतु कुछ को सायास भाव के साथ-साथ शिल्प में ढालना पड़ता है और ये अतीव श्रमसाध्य होता है।

दोष और निराकरण

दैनिक अभ्यासात्मक शोध से प्राप्त जानकारी के अनुसार दोहों में कुछ दोष पाए जाते है जिनके कारण दोहाकार का कथ्य, विचार और शब्दों के ताल मेल नहीं करते और वही से दोहाकार के दोहों में दोष आने लगते है।

ये दोष कई प्रकार के होते है।


1.    लिंग दोष

2.    वचन दोष

3.    वर्तनी दोष

4.    अक्रमणत्व दोष

5.    तुकांत दोष

6.    लयात्मक दोष

7.    शुतुरगुर्बा दोष

8.    पुनरुक्ति दोष

9.    मात्रात्मक दोष

10. चरण दोष


श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।


Ø  लिंग दोष- जब कहे गये दोहे में पुलिंग या स्त्री की बात की जा रही हो और कहीं त्रुटिवश ठीक विलोम कथन लिख दिया गया हो वहाँ यह दोष पाया जाता है इसके निवाराण हेतु लिंग की पहचान सही किया जा सकता है।

उदाहरण -

बैठी सजना  सज रही, दर्पण सम्मुख आज।

काजल लाली आलता, मेंहदी ज़ेवर साज  


 त्रुटिवश  उक्त दोहा में सजना लिख गया था अतः 


बैठी सजनी सज रही, दर्पण सम्मुख आज।

काजल लाली आलता, मेंहदी ज़ेवर साज

                                        -आचार्य प्रताप


Ø  वचन दोष-    वचन दोष में हमारे द्वारा लिखे गए दोहों में एकवचन स्थान पर बहुवचन या  बहुवचन स्थान पर एकवचन त्रुटिवश या अनजाने में इस सूक्ष्म ज्ञान से परिचित न होने के कारण लिख देते हैं इसे क्रमशः  परिवर्तित कर इस दोष से मुक्त किया जा सकता  है।

Ø  वर्तनी दोष- सामन्यतः यह दोष त्रुटिपूर्ण वर्तनी के लेखन से होता है और इसका निवरण वर्तनी को शुद्ध कर किया जा सकता है।

Ø  अक्रमणत्व दोष- यह एक ऐसा दोष है जो कि शीघ्रता से स्वयं दोहाकार की भी दृष्टि में आये बिना हो जाता है, इसमें दोहों के एक य दो श्ब्दों क क्रम बदल जाने से लय में भिन्नता उत्पन्न होती है , इसका निवरण शब्दों को सही क्रम में रख कर किया जाता है।

Ø  तुकांत दोष-  प्रत्येक छंद में तुकांत का पालन एक निश्चित व्यवस्था के अंतर्गत करना होता है। दोहा छंद, जिसमें द्वितीय और चतुर्थ चरण के अंत में तुक का विधान होता है, तुकांत नियम का पालन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है -
तुकांत को समझने के लिए एक दोहा छंद का उदाहरण लिया जा सकता है-
          बहते नल  को  देखकर , करता  क्यों  परिहास।

               ज्ञात नहीं जिस व्यक्ति को,कैसी होती प्यास।।

                                                     -प्रताप

            यहाँ तुकांत को समझने के लिए द्वितीय और चतुर्थ चरण के अंतिम शब्द दृष्टव्य हैं-
             परिहास = परि+ह् +  आस

प्यास =       प्य् +  आस
इन दोनों चरणों के अंत में आस सामान्य रूप में विद्यमान है,जो कि प्रत्येक परिस्थिति में अपरिवर्तनीय है। इसे अचर कहा जा सकता है। इनके पूर्व आने वाले व्यंजन ह् और प्य् परिवर्तनीय होते है ,जिन्हें चर कहा जा सकता है ।
तुकांत का प्रयोग करते समय ऐसे शब्दों का चयन किया जाना चाहिए जो कि चर और अचर दोनों ही दृष्टियों से पृथक हों। मात्र शब्द और उसका अर्थ अलग होने से तुकांत छंद में आनंद और प्रभविष्णुता में वृद्धि नहीं करते।  दोहे के एक चरण में यदि वेश और दूसरे में परिवेश शब्द का तुक के रूप में प्रयोग करने से चर परिवर्तित नहीं होता-
वेश = व् + एश
परिवेश= परि+ व् +एश
इसी तरह अन्य शब्दों को लिया जा सकता है; जैसे -
मान, सम्मान, अपमान ; देश , विदेश, परदेश; दान , अवदान; ज्ञान, विज्ञान आदि
            इस तरह के शब्दों का तुकांत के रूप प्रयोग करने से बचने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि ऐसे शब्दों में चर और अचर मूलतः एक ही होते हैं।अंतर मात्र शब्द के साथ जुड़े उपसर्ग के कारण दृष्टिगत होता है।ऐसे शब्दों का तुकांत के रूप में करने से न तो काव्यानंद में अभिवृद्धि होती है और न ही रोचकता में।
       ध्यातव्य है कि चरणांत में तुक का विधान एक जैसा ही रखना उचित होता है।वर्णागत भिन्नता सौंदर्य को प्रभावित करती है तथा छंद विधान के अनुरूप भी नहीं होती; जैसे - यदि दोहे प्रथम चरण के अंत में तुक 'शेष' का प्रयोग किया गया है तो दूसरे पद के अंत में 'वेश' शब्द द्वारा तुक नहीं मिलाया जा सकता क्योंकि एक का अचर- एष है जबकि दूसरे का अचर- एश दोनों पर्याप्त भिन्न हैं। इसी तरह अन्य शब्दों - दोष, जोश जैसे शब्दों को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है।
          तुकांत के जिन शब्दों के साथ अनुनासिक या अनुस्वार का प्रयोग होता है उनके लिए भी ऐसे ही किसी शब्द का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है जिसमें अनुनासिक या अनुस्वार हो; जैसे - दोहे के द्वितीय चरण के अंत में यदि 'बूँद' शब्द तुक के रूप में प्रयुक्त है तो चतुर्थ चरण के अंत में मूँद जैसे किसी शब्द का प्रयोग करना होता है। 'बूँद' का तुक 'कूद' से नहीं मिलाया जा सकता। 

Ø  लयात्मक दोष- उक्त वर्णित किसी भी दोष के आने से लयात्मक दोष उत्पन्न हो सकता है उन दोषों को दूर करने से यह दोष स्वतः ही समाप्त हो जाता है।

Ø  शुतुरगुर्बा दोष- इस दोष को अति-आवश्यक है क्योंकि इस दोष से छोटे ही नहीं अपितु बड़े दोहाकार भी बच नहीं पाए क्योंकि इसकी सूक्ष्मता को वो भी नहीं समझ पाते, जब तक कि उन्हें कोई बताता नहीं, बताने पर ही ज्ञात होता है कि तू-तेरा/ तेरी-तेरे, मैं –मेरा /मेरी –मेरे, आप-आपका/आपकी-आपके , हम- हमारा /हमारी-हमारे , तुम-तुम्हारा/तुम्हारी-तुम्हारे , ऐसे युग्मों का प्रयोग निहित है इससे तितर अन्य आने पर दोष माना जाता है\

इस दोष में सामान्यतः हम त्रुटि कहाँ करते है- “ तू के साथ तुम्हारा/तुम्हारी-तुम्हारे का प्रयोग कर या आपका /आपकी - आपके ऐसे शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं , जो कि पूर्णतः त्रुटियुक्त होते हैं , इनके सही प्रयोग से हम यह त्रुटि से  बच सकते हैं \

Ø  पुनरुक्ति/पर्याय  दोष- इस दोष में हम एक ही अर्थ वाले या एक ही शब्द के बार-बार प्रयोग से कर देते हैं जो कि त्रुटि माना गया है\

Ø  मात्रात्मक दोष- सामान्यतः यह त्रुटि नवाँकुरों के साथ अत्यधिक होती है क्योंकि मात्राओं का पूर्ण ज्ञान न होने पर हम यह त्रुटि प्रायः करते ही हैं अतः मात्रा बाँट का पूर्ण ज्ञान ले कर लेखन से इस दोष को दूर किया जा सकता है\   

Ø  चरण/ पंक्ति दोष – जब एक चरण दूसरे से तथा दूसरे का प्रथम से मेल न हो , या फिर तीसरे का चौथे या चौथे का तीसरे से मेल न हो तो चरण दोष , और प्रायः जब एक पंक्ति का दूसरे से मेल न हो तो पंक्ति दोष पाया जाता है\

उदाहरणतः  -  जब हम पहले चरण में ईश भक्ति लिख रहे है तो पूर्ण दोहे के भाव में ईश भक्ति ही होनी चाहिए न कि द्वतीय में श्रंगार, त्रतीय में हास्य , चतुर्थ में शोक/ वेदना/ अवसाद/ ग्लानी  नहीं होनी चाहिए | यही पंक्ति दोष पर भी अनुसारणीय  है

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दोहा छंद के आयामों को दोहों के माध्यम से अभिव्यक्ति

दोहों के विधान
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दोहा सरल उपाय है, कहना मन की बात।
चार चरण दो पंक्तियां, करें बड़ा आघात।।01।।

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लिखने से पहले पढ़ो , दोहा छंद विधान।
तेरह-ग्यारह विषम सम, दोहों की पहचान।।02।।
=
विषम चरण तेरह रखो , ग्यारह सम लो जान।
लिखता आज "प्रताप" फिर , दोहा छंद विधान।।03।।

=

दोहा लिखना सरल है ,तेरह ग्यारह मेल।
बच्चे-बूढ़े सब कहें,
यह बच्चों का खेल।।04।।

=

शुरू करें मत जगण से , दोहा छंद विधान।
शुरू कभी यदि हो गया,लय का रखना ध्यान।।05।।

=

विषम चरण की बात रख, दोहों का सम्मान।
मात्राओं में ग्यारवीं ,
रखना लघु का ध्यान।।06।।

=
विषम चरण के अंत में, लघु-गुरु रखना ध्यान। 
सम चरणों के अंत में, गुरु-लघु लो तुम जा
न।।07।।

=

देशज  शब्दों का सफर ,  देशज  तक  ही  रख्ख।
श्रेष्ठ सृजन के हेतु कुछ,
तत्सम शब्द परख्ख।।08।।

=

दोहा   छंद    विधान    की   ,    सही  करें   पहचान ।
लघु,गुरु,तुक,लय,चरण, यति , सत्य रखें नित ध्यान।।
09।।

=

लक्ष्य  सतसई  को  बना ,  दोहे  लिखो  हजार।
यति-गति लय औ' नियम का ,
ध्यान रखो हर बार।।10।।

=

दोहा लेखन के लिए, करो बहुत अभ्यास।
गुणींजनो से सीखकर ,
करते रहो प्रयास।।11।।

=

सरगम सरगम लय मिले , सरगम सरगम सार।
सरगम के इस भाव से , नहीं
मानिए हार।।12।।

=

दोहा छंद विधान में, मात्रा का दें ध्यान।
तारतम्य लय लक्ष्य से, सरस हुआ रसपान।।13।।

=

दोहा छंद विधान है , मात्राओं का खेल।
सभी चरण में ग्यारवीं , मात्रा लघु का मेल।।14।।

                                 - आचार्य प्रताप

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