आज से ठीक एक वर्ष पूर्व लिखा गया गीत - यह बेला शाम की
मुखड़ा दादा श्री ओम निश्चल जी से उधार लिया है और गीत आपको समर्पित है।
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यह वेला शाम की यह वेला शाम की।
दिन भर के
काम से थककर आराम की।
यह वेला शाम की , यह वेला शाम की।
मेघा -मल्हार की
खग-मृग उछाल की।
पतझड़ में झड़ रहें पत्तों के नाम की।।
यह वेला शाम की ....
रंगो-बाहार की
स्वर्णिम फुहार की
वृक्षों के मध्य में रविकर के शान की।
नीलम परिधान के
रक्तिम बलिदान की
साक्षी ये रश्मियाँ रवि के विश्राम की।
यह वेला शाम की ....
तरु के ऊँघान की
दिन के सयान की,
अवस्थाओं के साथ में , रिश्ते पहचान की ।
मिटते उजियार की
बढ़ते निज धाम की।
अपनों के नाम की सपनों के शाम की
यह वेला शाम की .....
आचार्य प्रताप
बढ़िया गीत।
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