विधाता छंद
दिवाकर ढल गया था जब , तिमिर फैला हुआ तब है।
सुधाकर दिख गया अब तो , तिमिर का नाश तो अब है॥
निशा का रंग काला है, तभी भय है जगत भर में,
भयानक रात होती है ,कहीं दिखता नहीं अब है॥
बुरी घटना घटी थी जब, तभी भी रात काली थी,
विरह में गीत गाता था ,प्रिये को भूलना कब है॥
सवेरा हो रहा अब है , हमें यह ज्ञात होता है,
खुले बंधन तिमिर के हैं , ख़ुशी की लहर तो अब है॥
मधुर कलरव करें पंछी, गगन भर लालिमा छाई,
सवेरा हो गया है अब ,तिमिर तो मिट गया सब है॥
आचार्य प्रताप
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी टिप्पणी से आपकी पसंद के अनुसार सामग्री प्रस्तुत करने में हमें सहयता मिलेगी। टिप्पणी में रचना के कथ्य, भाषा ,टंकण पर भी विचार व्यक्त कर सकते हैं