कुंडलिनी
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१
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आया था जब जगत में, विलख रहा था खूब।
धीरे-धीरे फिर दिखी, मनमोहक सी दूब।
मनमोहक सी दूब, दिखी हरियाली माया।
लगता ऐसा आज, पुनः है सावन आया।।०१
०२
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आया था जब गाँव से , शहर हैदराबाद।
भाषा में था भेद तब , लगा हुआ बर्बाद।
लगा हुआ बर्बाद,सवारा अपनी काया।
भूत,भविष्य, वर्तमान, सब कुछ यहीं पर आया।
३.
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आया फाल्गुन मास अब, छाए रंग हजार।
रंग-बिरंगी तितलियाँ, उड़ती पंख पसार।
उड़ती पंख पसार, मिट रही उनकी काया।
टूटा जो था पंख , नहीं फिर वापस आया।
४.
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कुंडलिनी का जागरण, मात्राओं का नाप।
दिन रात अभ्यास करो, लिखते रहो प्रताप।।
लिखते रहो प्रताप , सदा तुम भ्राता -भगिनी।
लय का रखना ध्यान,रचो तुम भी कुंडलिनी।।
५.
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छाया दिखती है नहीं, नष्ट हुए हैं पेड़।
जीवन खतरे में दिखे, जीवन हुआ अधेड़।
जीवन हुआ अधेड़, प्रदूषण की ही काया।
कह प्रताप अविराम, कहाँ से मिलती छाया।
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राहुल प्रताप सिंह "प्रताप"
इसे बनाने का उद्देश्य यह है कि मेरे पाठक मित्र तथा सभी चाहने वाले मुझसे जुड़े रहें और मेरी कविताएँ छंदों के अनुशासन , मेरे अपने विचार, मैं अपने पाठकों तक पहुँचा सकूँ। मेरे द्वारा लिखी गई टिप्पणियाँ, पुस्तकों के बारे में , उनकी समीक्षाएँ , आलोचनाएँ ,समालोचनाएँ तथा छंदों के अनुशासन , मेरे अपने शोध तथा विशेष तौर पर हिंदी भाषा के प्रचार - प्रसार में मेरे द्वारा किए गए कार्यों का वर्णन मैं इसके माध्यम से अपने मित्रो तक पहुँँचा सकूँ।
गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018
कुंडलिनी छंद
समालोचक , संपादक तथा पत्रकार
प्रबंध निदेशक
अक्षरवाणी साप्ताहिक संस्कृत समाचार पत्र
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