मात-पिता पूजन दिवस, भूल गए हैं लोग।
पश्चिम की यह सभ्यता, ढूँंढ़ रहे रति योग।।०१।।
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एक बार ही वर्ष में, आए दिवस जनाब।
यहाँ-वहाँ खोजो नहीं , ख़ुद ही बनो गुलाब।।०२।।
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लघु होकर गुरु निम्न से , वचन माँगते आप।
अँगूठे के संग में , धन भी दिया प्रताप।।०३।।
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प्रेमी से करता रहा, प्रेम-प्रेम आलाप।
प्रेम किया जिसने नहीं,जीवन व्यर्थ प्रताप।।०४।।
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पंचम दिवस वसंत का,माँ शारद का वार।
बिना आपके ज्ञान का, हुआ कहाँ उद्धार? ? ०५।।
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ऊषा खड़ी निहारती, दिखता जो आदित्य।
विरह यामिनी का हुआ, पुनः अंत ही नित्य।।०६।।
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सात वार सप्ताह के, अठवांँ है परिवार।
सुखद रहा परिवार तो, सुखद रहें सब वार।।०७।।
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गाल लाल हैं लाल के, लाल दिखे अब लाल।
लाल-लाल ही दिख रहा, चोंट लगी जब भाल।।०८।।
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बीता सारा दिवस है, किया नहीं कुछ काम।
सोचा अब कुछ बोल दूंँ , भेजूँ प्रथम सलाम।।०९।।
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हर आँगन तुलसी लगी, तन-मन रखे निरोग।
फल-फूल और पत्तियाँ , सबका है उपयोग।।१०।।
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बातों-बातों में सही , कहा मित्र ने चोर।
संकट में जब पड़ गया,बढे मित्र की ओर।।११।।
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तुम मेरी कविता बनी, कवि बन गया "प्रताप"।
एक-दूजे के हम हुए, मिटे सभी संताप।।१२।।
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विधु से पूंछूँ मैं सदा,अब तक मिले न नैन।
दिखती कैसी प्रेयसी, हर पल मैं बेचैन।।१३।।
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चोरी करते चोर ये,आदत इनकी जीर्ण।
शब्द-भाव के चोर हैं, सोच बनी संकीर्ण।।१४।।
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शीतल लहरें शीत की, सिखा रही हैं सीख।
बाहर अब निकलें नहीं,कहता मौसम चीख।।१५।।
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बड़ी बात मत कीजिए, बड़े कीजिए कर्म।
कर्मों से बढ़कर नहीं, जग में कोई धर्म।।१६।।
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भुला दिया है आज फिर, श्रम संकट संताप ।
सबक़ बड़ा तुम सीख लो ,कहता आज प्रताप।।१७।।
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बिना रुके लिखती रही , तेज कलम की धार।
धोखे से यदि रुक गयी, पुनः करो तैयार।।१८।।
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दुख हो चाहे सुख मिले, कहें सदा ही सत्य।
चाटुकारिता शुभ नहीं, बोलें नहीं असत्य।।१९।।
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बच्चों में दिखता सदा, ईश्वर का ही रूप।
बच्चों से ही छाँव है, बच्चों से ही धूप।।२०।।
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आचार्य प्रताप
पश्चिम की यह सभ्यता, ढूँंढ़ रहे रति योग।।०१।।
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एक बार ही वर्ष में, आए दिवस जनाब।
यहाँ-वहाँ खोजो नहीं , ख़ुद ही बनो गुलाब।।०२।।
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लघु होकर गुरु निम्न से , वचन माँगते आप।
अँगूठे के संग में , धन भी दिया प्रताप।।०३।।
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प्रेमी से करता रहा, प्रेम-प्रेम आलाप।
प्रेम किया जिसने नहीं,जीवन व्यर्थ प्रताप।।०४।।
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पंचम दिवस वसंत का,माँ शारद का वार।
बिना आपके ज्ञान का, हुआ कहाँ उद्धार? ? ०५।।
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ऊषा खड़ी निहारती, दिखता जो आदित्य।
विरह यामिनी का हुआ, पुनः अंत ही नित्य।।०६।।
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सात वार सप्ताह के, अठवांँ है परिवार।
सुखद रहा परिवार तो, सुखद रहें सब वार।।०७।।
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गाल लाल हैं लाल के, लाल दिखे अब लाल।
लाल-लाल ही दिख रहा, चोंट लगी जब भाल।।०८।।
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बीता सारा दिवस है, किया नहीं कुछ काम।
सोचा अब कुछ बोल दूंँ , भेजूँ प्रथम सलाम।।०९।।
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हर आँगन तुलसी लगी, तन-मन रखे निरोग।
फल-फूल और पत्तियाँ , सबका है उपयोग।।१०।।
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बातों-बातों में सही , कहा मित्र ने चोर।
संकट में जब पड़ गया,बढे मित्र की ओर।।११।।
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तुम मेरी कविता बनी, कवि बन गया "प्रताप"।
एक-दूजे के हम हुए, मिटे सभी संताप।।१२।।
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विधु से पूंछूँ मैं सदा,अब तक मिले न नैन।
दिखती कैसी प्रेयसी, हर पल मैं बेचैन।।१३।।
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चोरी करते चोर ये,आदत इनकी जीर्ण।
शब्द-भाव के चोर हैं, सोच बनी संकीर्ण।।१४।।
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शीतल लहरें शीत की, सिखा रही हैं सीख।
बाहर अब निकलें नहीं,कहता मौसम चीख।।१५।।
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बड़ी बात मत कीजिए, बड़े कीजिए कर्म।
कर्मों से बढ़कर नहीं, जग में कोई धर्म।।१६।।
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भुला दिया है आज फिर, श्रम संकट संताप ।
सबक़ बड़ा तुम सीख लो ,कहता आज प्रताप।।१७।।
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बिना रुके लिखती रही , तेज कलम की धार।
धोखे से यदि रुक गयी, पुनः करो तैयार।।१८।।
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दुख हो चाहे सुख मिले, कहें सदा ही सत्य।
चाटुकारिता शुभ नहीं, बोलें नहीं असत्य।।१९।।
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बच्चों में दिखता सदा, ईश्वर का ही रूप।
बच्चों से ही छाँव है, बच्चों से ही धूप।।२०।।
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आचार्य प्रताप
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