गीत -अपना जीवन हार गया।

गीत

जिसने सबके स्वप्न सजाये, अपना जीवन हार गया।
जिसने घर को जोड़ा था वह, आज बेगाना हो गया।।


दिन-रात तपन में झुलसा था,
दीप जलाता रहा सदा।
माँ-बाप के सुख-दुख में ही ढूँढा,
आश्रय मन का यदा-तदा।।
बहन की डोली देखी तो,
आँखों से बरसे नदिया जल।
भाई की राहों में जिसने,
भर दी सुख की चाह प्रबल।।
हर नयनों के सपन सजोकर, निज स्वप्न को मार गाया।।
जिसने सबके स्वप्न सजाये, अपना जीवन हार गया।।०१।।

खुशियों की वर्षा करवा दी,
स्वयं सहे संताप सभी।
आच्छादित वो रहा गगन सम,
धरा बना वो आप कभी।
अब तो कोई पूछ नहीं है,
कैसे बीत रही है ठाँव।
बैठ मुँड़ेरे पर निज-गृह अब,
देख समय की धूप-छाँव।
जिसने सबको गर्व कराया, अपने कर्ज उतार गया।।
जिसने सबके स्वप्न सजाये, अपना जीवन हार गया।।०२।।











चक्र-समय का कैसे घूमा ,
रिश्ते सारे टूट रहे।
नन्हीं-सी बेटी के मन के,
स्वप्न अधूरे रूठ रहे।
पत्नी भी आँसू पीती है,
किन्तु हँस रही सबके साथ।
घर की दीवारें कहती हैं,
न आना अब मेरे नाथ।
जिसने जीवन दिया सभी को, मौन ही जीवन वार गया।।
जिसने सबके स्वप्न सजाये, अपना जीवन हार गया।।०३।।
-आचार्य प्रताप
Achary Pratap

समालोचक , संपादक तथा पत्रकार प्रबंध निदेशक अक्षरवाणी साप्ताहिक संस्कृत समाचार पत्र

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