जीवन के तट पर सखे! , प्रिये कहीं पर-छोर।।
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आगमन ऋतु शीत का है ,शीलत बहे बयार।
तन-मन रोमांचित प्रिये! , करता तेरी पुकार।
कब तक विरहा विरह में , निरखे चंद चकोर।।०१।।
दिनकर तेरी धूप अब , होती जाती मंद।
सर्दी की इस धूप में, पाए सब आनंद।।
सभी खींचते दिख रहे , मृदुल धूप की डोर।।०२।।
काढ़ा लहसुन हींग सह , उष्ण सलिल लें नाप।
कह प्रताप अविराम यह , सीख बड़ी बरजोर।।०३।।
-आचार्य प्रताप
प्रबंध निदेशक
अक्षरवाणी संस्कृत समाचार पत्रम्
सामयिक और सार्थक दोहागीत।
जवाब देंहटाएंनमन श्रद्धेय श्री
हटाएंप्रेरक प्रतिक्रिया के के लिए धन्यवाद
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17.12.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत आभार आपका
हटाएंसारगर्भित और सामयिक दोहे..सुन्दर रचना..।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार उत्साहवर्धन हेतु
हटाएंबहुत सुंदर दोहा गीत
जवाब देंहटाएंधीरतापूर्ण परायण पठन हेतु सधन्यवाद
हटाएंहृदयग्राहिणी है यह सीख ... अति सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंनमन आदरणीया प्रेरक टिप्पणी देकर मनोबल बढ़ाने के लिए धन्यवाद
हटाएंवाह!बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन।
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