मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

शब्द की उत्पत्ति

शब्दों का आधार ध्वनि है, तब ध्वनि थी तो स्वाभाविक है शब्द भी थे। किन्तु व्यक्त नहीं हुये थे, अर्थात उनका ज्ञान नहीं था । उदाहरणार्थ कुछ लोग कहते है कि अग्नि का आविष्कार फलाने समय में हुआ। तो क्या उससे पहले अग्नि न थी महानुभावों? अग्नि तो धरती के जन्म से ही है किन्तु उसका ज्ञान निश्चित समय पर हुआ। इसी प्रकार शब्द व ध्वनि थे किन्तु उनका ज्ञान न था । तब उन प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन की आत्मिक एवं लौकिक उन्नति व विकास में शब्दो के महत्व और शब्दों की अमरता का गंभीर आकलन किया । उन्होंने एकाग्रचित्त हो ध्वानपूर्वक, बार बार मुख से अलग प्रकार की ध्वनियाँ उच्चारित की और ये जानने में प्रयासरत रहे कि मुख-विवर के किस सूक्ष्म अंग से ,कैसे और कहाँ से ध्वनि जन्म ले रही है। तत्पश्चात निरंतर अथक प्रयासों के फलस्वरूप उन्होने परिपूर्ण, पूर्ण शुद्ध,स्पष्ट एवं अनुनाद क्षमता से युक्त ध्वनियों को ही भाषा के रूप में चुना ।

       सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और सूर्य के चारों ओर से 9 भिन्न भिन्न रश्मियों के निकलने से कुल निकली 36 रश्मियों की ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने और इन 36 रश्मियों के पृथ्वी के आठ वसुओं से टकराने से 72 प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती हैं । जिनसे संस्कृत के 72 व्यंजन बने। इस प्रकार ब्रह्माण्ड से निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की वर्णमाला आधारित है। ब्रह्मांड की इन ध्वनियों के रहस्य का ज्ञान वेदों से मिलता है। इन ध्वनियों को नासा ने भी स्वीकार किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन ऋषि मुनियों को उन ध्वनियों का ज्ञान था और उन्ही ध्वनियों के आधार पर उन्होने पूर्णशुद्ध भाषा को अभिव्यक्त किया। अतः प्राचीनतम आर्य भाषा जो ब्रह्मांडीय संगीत थी उसका नाम “संस्कृत” पड़ा। संस्कृत – संस्+कृत् अर्थात श्वासों से निर्मित अथवा साँसों से बनी एवं स्वयं से कृत , जो कि ऋषियों के ध्यान लगाने व परस्पर-संप्रक से अभिव्यक्त हुई।*

       कालांतर में पाणिनी ने नियमित व्याकरण के द्वारा संस्कृत को परिष्कृत एवं सर्वम्य प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान किया। पाणिनीय व्याकरण ही संस्कृत का प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है। दिव्य व दैवीय गुणों से युक्त, अतिपरिष्कृत, परमार्जित, सर्वाधिक व्यवस्थित, अलंकृत सौन्दर्य से युक्त , पूर्ण समृद्ध व सम्पन्न , पूर्णवैज्ञानिक देववाणी संस्कृत – मनुष्य की आत्मचेतना को जागृत करने वाली, सात्विकता में वृद्धि , बुद्धि व आत्मबलप्रदान करने वाली सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। अन्य सभी भाषाओ में त्रुटि होती है पर इस भाषा में कोई त्रुटि नहीं है। इसके उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि सहस्त्रों वर्षों से लेकर आज तक वैदिक मन्त्रों की ध्वनियों व मात्राओं में कोई पाठभेद नहीं हुआ और ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कह रहे बल्कि विश्व के आधुनिक विद्वानों और भाषाविदों ने भी एक स्वर में संस्कृत को पूर्णवैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ माना है।

*शब्द और उसके भाव*

अब आते है शब्दो के भाव पर l पृथ्वी के भूभाग के अलग अलग जगहों पर भाव के आधार पर शब्दो की उत्पत्ति संभव हुई l अलग अलग भूभाग पर रहने वाले समाज के द्वारा विभिन्न सभ्यताओं व संस्कृति का जन्म हुआ l समाज  के विभिन्न क्रियाकलापों को किसी न किसी शब्द से परिभाषित किया गया l अर्थात एक शब्द ही पूरे क्रियाकलाप की व्याख्या कर देते है l क्या भिन्न भिन्न समाज /संस्कृति से उत्पन्न शब्दों को एक दूसरे का पर्याय मान लेना उचित है ?? सही मायने में शब्द ही भाव होते है l शब्दो के कह देने मात्रा से ही भाव व मंतव्य का पता चल जाता है l 
हमारी सनातन संस्कृति में "शादी" को सात जन्मों का बंधन कहा गया है l जबकी पृथ्वी के सभी भूभाग और सभ्यता /संस्कृति में  शादियां होती हैं .. कहीं शादी को "निकाह" तो कहीं पर मैरिज कहा गया है l लेकिन किसी भी सभ्यता /संस्कृति में सात जन्मों तो क्या एक भी जन्म निभाने की बात नहीं कहीं गई है l 

शब्दकोश में एक ही क्रियाकलाप के विभिन्न नाम , शादी निकाह मैरिज आदि लिखे गए है l क्या "निकाह, मैरिज" आदि शब्द को "शादी/परिणय सूत्र" का पर्याय या समतुल्य माना जा सकता है ?? 

" नेह , स्नेह, प्रेम, मित्र" आदि शब्द जहा सनातन संस्कृति की देन है, तो इश्क, मोहब्बत आदि शब्द अन्य संस्कृति की देन है l अपनी अपनी संस्कृति में सभी शब्द पावन और पवित्र हो सकते है , पर इनको किसी दूसरी संस्कृति से जोड़ना इस शब्दों के प्रति अपमान का बोध प्रतीत जन पड़ता है l

अरबी फारसी उर्दू शब्दों के प्रयोग के विषय में तर्क दिया जाता है कि हमारी संस्कृति में "आत्मसात" करने की क्षमता है l बिल्कुल , यह सत्य है कि कालांतर से ही सनातन संकृति ने विभिन्न धर्मो, भाषाओं को सम्मान दिया है, और तो और विभिन्न संस्कृतियों को भी आत्मसात करने का अथक प्रयास किया है l सनातन संस्कृति का तो ध्येय वाक्य ही *वसुधैव कुटुंबकम्* रहा है l शक, हून, गजनी, गोरी, लोदी, गुलाम, मुगल, डच, फ्रांसीसी, अंग्रेज जैसे कितने ही विधर्मियो ने समय समय पर हमला किया , सनातन संस्कृति को समाप्त करने का प्रयास किया l क्या कोई बता सकता है कि सनातन संस्कृति ने किसी अन्य सभ्यता /संस्कृति पर हमला किया हो ???

हमारी सभ्यता को नष्ट करने के लिए क्या क्या प्रयास नहीं किए गए...l तक्षशिला, नालंदा इसके सबसे बड़े उदाहरण है l इतना सब कुछ होने के बाद भी सनातनियों ने विभिन्न संस्कृतियों के शब्दो को स्वयं में समाहित करने का अथक प्रयास किया है l

शब्द सिर्फ शब्द नहीं होते, बल्कि इसके द्वारा भावनाएं भी प्रदर्शित हो जाती है l दोस्ती और आशिकी को एक दूसरे के समतुल्य मान सकते है, क्योंकि ये दोनों ही शब्द ऐसे संस्कृति से संबंध रखते है जहां *सात जन्मों का बंधन* नहीं होता है  l पर," मित्र, सखा, प्रेम" तो बिन कहे ही जन्म जन्मांतर की बात कह जाते है l

*महज एक शब्द की बात नहीं है l एक शब्द की पुनरावृत्ति, अभ्यास और प्रयोग धीमे जहर के समान अन्य संस्कृति पर कुठाराघात है l*

पंद्रहवीं शताब्दी से दिया जाने वाला ये जहर अब मन मस्तिष्क पर राज करने लगा है 
हो सकता है आज हमें इसमें कुछ विशेष नहीं दिखाई पड़ रहा है, लेकिन हम अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़ कर जा रहे है .... इस पर विचार करना चाहिए l

ये सिर्फ एक शब्द पर लागू नहीं होता बल्कि हमारी दिनचर्या भी धीरे धीरे बदलती जा रही है l ये महज संयोग नहीं है, बल्कि अभ्यास है l *जब हम स्वदेशी की बात करते है तो महज टूथपेस्ट और मोबाइल से स्वदेशी की व्याख्या नहीं की जा सकती l* *स्वदेशी निज भाषा, स्वाभिमान और सनातन संस्कृति से शुरू होती है l*

महात्मा गांधी जी ने कहा था
 *जिस देश की अपनी संस्कृति नहीं होती, उसका अस्तित्व धीरे धीरे समाप्त हो जाता है*

स्तोत्र- गूगल व फेसबुक मात्र कुछ अंश

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