'सड़क पर' - सामाजिक यथार्थ का प्रतिबिंब

 'सड़क पर' - समकालीन संवेदना का नवीन प्रवाह और सामाजिक यथार्थ का प्रतिबिंब

 
कृति विववरण

कृति : सड़क पर (नवगीत संग्रह)
रचनाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
प्रकाशन: समन्वय प्रकाशन अभियान
प्रथम संस्करण: वर्ष २०१८
मूल्य: २५०/-
पृष्ठ: 96
आवरण पेपरबैक बहुरंगी, कलाकार मयंक वर्मा

 

महामारी के उस कठिन काल में जब सारा विश्व एक अदृश्य शत्रु से जूझ रहा था, तब मेरे हाथों में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी का नवगीत संग्रह 'सड़क पर' आया। किंतु जीवन की व्यस्तताओं और दायित्वों के बीच यह कृति अनछुई रह गई। आचार्य जी का बार-बार आग्रह होता रहा कि इस कृति का संस्कृत में अनुवाद करूँ। उनकी प्रेरणा और विश्वास मेरे लिए सम्मान का विषय था, किंतु मैं अपनी सीमाओं से भलीभाँति परिचित था।

 '' कहना मेरे स्वभाव में नहीं और 'हाँ' कहकर उनकी अपेक्षाओं को निराश करना मेरे संस्कारों में नहीं। अतः मैं टालता रहा, कभी समय की कमी का बहाना बनाकर, तो कभी अन्य व्यस्तताओं का उल्लेख कर। किंतु आज जब इस कृति को गहराई से समझने का अवसर मिला, तब आचार्य जी की दूरदर्शिता का बोध हुआ।


उनकी यह कृति वास्तव में काल की साक्षी है। 'सड़क' के प्रतीक से उन्होंने न केवल जीवन की गति को समझा है, बल्कि उसकी दिशा भी निर्धारित की है। उनकी दृष्टि में जब कोई कवि किसी रचना के अनुवाद का प्रस्ताव रखता है, तो वह मात्र भाषांतरण नहीं चाहता, बल्कि उस रचना में निहित जीवन-दर्शन को नई भाषा में, नए परिवेश में, नई संवेदना के साथ प्रस्तुत करने की अपेक्षा रखता है।

    आज पश्चाताप होता है कि मैं उनकी इस दूरदर्शी सोच को समय रहते नहीं समझ पाया। संस्कृत भाषा की समृद्ध परंपरा में 'सड़क पर' जैसी आधुनिक कृति का अनुवाद न केवल दो भाषाओं का सेतु बनता, बल्कि प्राचीन और नवीन विचारधाराओं के बीच एक नया संवाद भी स्थापित करता।

    आचार्य जी की प्रेरणा वास्तव में साहित्य के क्षेत्र में नए प्रयोगों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम थी। उनकी दृष्टि में भाषाएँ सीमाएँ नहीं बनातीं, बल्कि संवेदनाओं को विस्तार देती हैं। यही कारण है कि वे एक आधुनिक हिंदी कृति को संस्कृत के वैभव से जोड़ना चाहते थे।

अब जब समय बीत चुका है, तब उनकी इस दूरदर्शिता को समझते हुए मन में एक संकल्प जागता है कि भले ही विलंब हुआ है, किंतु अब इस कार्य को पूर्ण करने का प्रयास करूँगा। क्योंकि कभी-कभी देर से समझी गई बात भी जीवन को एक नई दिशा दे सकती है।

 साहित्य की विभिन्न विधाओं में नवगीत का स्थान विशिष्ट है। यह विधा समकालीन जीवन की जटिलताओं और चुनौतियों को काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करती है। इसी परंपरा में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का नवगीत संग्रह 'सड़क पर' एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में सामने आया है। यह संग्रह वर्ष 2018 में समन्वय प्रकाशन अभियान से प्रकाशित हुआ। 96 पृष्ठों का यह संग्रह आधुनिक जीवन की विसंगतियों, आशाओं और सामाजिक यथार्थ का एक जीवंत दस्तावेज है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का नवगीत संग्रह 'सड़क पर' समकालीन हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह संग्रह वर्तमान समय की विसंगतियों और चुनौतियों को एक नवीन काव्यात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करता है। 'सड़क' यहाँ केवल एक भौतिक मार्ग नहीं, बल्कि जीवन-यात्रा का एक सशक्त प्रतीक बन कर उभरती है।

 संग्रह में 'सड़क' शीर्षक से नौ कविताएं संकलित हैं, जो जीवन के विविध पक्षों को उद्घाटित करती हैं। कवि ने 'सड़क' के प्रतीक के माध्यम से समकालीन जीवन की जटिलताओं को समझने और समझाने का प्रयास किया है। जब वे लिखते हैं - "सड़क पर जनम है, सड़क पर मरण है, सड़क खुद निराश्रित, सड़क ही शरण है" - तो यह पंक्तियां जीवन के यथार्थ को गहराई से व्यक्त करती हैं।

भाषायी दृष्टि से यह संग्रह उल्लेखनीय है। कवि ने सहज और प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग किया है, जो पाठक से सीधा संवाद स्थापित करती है। जैसे:

 "रही सड़क पर अब तक चुप्पी,

पर अब सच कहना ही होगा।"

इन पंक्तियों में भाषा की सरलता के साथ विषय की गंभीरता भी बनी हुई है।

'सलिल' जी की कविताओं में संवेदना का स्तर बहुआयामी है। वे समाज की विसंगतियों को देखते हैं, उन पर व्यंग्य करते हैं, और साथ ही समाधान की दिशा भी सुझाते हैं। उनकी कविताएं व्यक्तिगत अनुभवों से निकलकर सामाजिक चेतना तक विस्तृत होती हैं।

संग्रह की एक विशिष्ट उपलब्धि है इसका आशावादी दृष्टिकोण। विषमताओं के बीच भी कवि आशा की किरण तलाशता है। जब वे कहते हैं - "कशिश कोशिशों की सड़क पर मिलेगी, कली मिह्नतों की सड़क पर खिलेगी" - तो यह आशावाद स्पष्ट झलकता है।

 इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि से आने वाले 'सलिल' जी की कविताओं में तर्क और भावना का अद्भुत संतुलन दिखाई देता है। उदाहरण के लिए:

 "आज नया इतिहास लिखें हम

अब तक जो बीता सो बीता

अब न आस-घट होगा रीता"

 माता-पिता को समर्पित कविता में मूल्यों के प्रति कवि की प्रतिबद्धता स्पष्ट होती है:

 "श्वास-आस तुम

पैर-कदम सम,

थिर प्रयास तुम"

संग्रह में सामाजिक यथार्थ की गहरी समझ दिखाई देती है। कवि लिखते हैं:

"सड़क पर शर्म है,

सड़क बेशरम है

सड़क छिप सिसकती

सड़क पर क्षरण है!"

हालांकि, कुछ स्थानों पर विषय की पुनरावृत्ति और पारंपरिक नवगीत की सीमाओं का अतिक्रमण भी दिखाई देता है। कहीं-कहीं भाव-विस्तार में संयम की आवश्यकता महसूस होती है।

'सड़क पर' हिंदी नवगीत को एक नई दिशा प्रदान करता है। यह संग्रह न केवल काव्य-संग्रह है, बल्कि समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज भी है। इसमें व्यक्त आशावाद और कर्मठता का संदेश आज के समय में विशेष प्रासंगिक है। यह पुस्तक साहित्य के विद्यार्थियों, शोधार्थियों और काव्य-प्रेमियों के लिए एक महत्वपूर्ण पाठ्य सामग्री है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने अपनी तकनीकी पृष्ठभूमि और काव्य प्रतिभा का सुंदर समन्वय करते हुए एक सार्थक रचना प्रस्तुत की है, जो निश्चित रूप से हिंदी नवगीत परंपरा में अपना विशिष्ट स्थान रखेगी।


-आचार्य प्रताप

Achary Pratap

समालोचक , संपादक तथा पत्रकार प्रबंध निदेशक अक्षरवाणी साप्ताहिक संस्कृत समाचार पत्र

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