गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

प्रताप-सहस्र से दोहा-अष्टक (सौंदर्यपूर्ण आशुचित्र देख कर उपजे दोहे )

दोहावली
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सुंदर मुखड़ा देखकर ,  मोहित हुआ प्रताप।
ज्ञान बड़ा सौंदर्य से , सुंदरता अभिशाप।।०१।।
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मुखड़ा सुंदर है बहुत, बड़ा तुम्हारा ज्ञान।
ज्ञान-ज्ञान से जब मिले ,  दूर हुए आज्ञान।।०२।।
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होता पीड़ा से भरा, सदा प्रेम का रोग।
कहता आज प्रताप फिर, मत कर ऐसा योग।।०३।।
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कैसे कह दूँ प्रेम है, तुमसे अब भी मीत।
व्याकुल मन विचलित रहे, लिखूँ विरह के गीत।।०४।।
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नयन अधर सुंदर दिखे, सुंदर दिखा कपोल।
स्वार्णिम तेरे केश ये ,  रूप तेरा अनमोल।।०५।।
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विधु से पूँछूँ मैं सदा,अब तक मिले न नैंन।
दिखती कैसी प्रेयसी, हर पल मैं बेचैन।।०६।।
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प्रीतम प्रीत प्रसंग पर  ,प्रियवर प्रिय तव  प्रेम।
तुम बिन जीवन रस नहीं, शांति नहीं ना क्षेम।।०७।।
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दर्शन दे जा शुभाश्री, मिला नयन से नैन।
फिर मन शीतलता मिले  , मिले तभी उर चैन।।०८।।
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आचार्य प्रताप

कुंडलिनी छंद

कुंडलिनी
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आया था जब जगत में, विलख रहा था खूब।
धीरे-धीरे फिर दिखी, मनमोहक सी दूब।
मनमोहक सी दूब, दिखी हरियाली माया।
लगता ऐसा आज, पुनः है सावन आया।।०१
०२
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आया था जब गाँव से , शहर हैदराबाद।
भाषा में था भेद तब , लगा हुआ बर्बाद।
लगा हुआ बर्बाद,सवारा अपनी काया।
भूत,भविष्य, वर्तमान, सब कुछ यहीं पर आया।
३.
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आया फाल्गुन मास अब, छाए रंग हजार।
रंग-बिरंगी तितलियाँ, उड़ती पंख पसार।
उड़ती पंख पसार, मिट रही उनकी काया।
टूटा जो था  पंख , नहीं फिर वापस आया।
४.
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कुंडलिनी का जागरण, मात्राओं का नाप।
दिन रात अभ्यास करो, लिखते रहो प्रताप।।
लिखते रहो प्रताप , सदा तुम भ्राता -भगिनी।
लय का रखना ध्यान,रचो तुम भी कुंडलिनी।।
५.
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छाया दिखती है नहीं, नष्ट हुए हैं पेड़।
जीवन खतरे में दिखे, जीवन हुआ अधेड़।
जीवन हुआ अधेड़, प्रदूषण की ही काया।
कह प्रताप अविराम, कहाँ से मिलती छाया।
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राहुल प्रताप सिंह "प्रताप"

दोहा-विंशति- आचार्य प्रताप

मात-पिता पूजन दिवस, भूल गए हैं लोग।
पश्चिम की यह सभ्यता, ढूँंढ़ रहे रति योग।।०१।।
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एक  बार  ही  वर्ष  में, आए दिवस जनाब।
यहाँ-वहाँ खोजो नहीं , ख़ुद ही बनो गुलाब।।०२।।
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लघु होकर गुरु निम्न से , वचन माँगते आप।
अँगूठे  के  संग  में , धन  भी  दिया   प्रताप।।०३।।
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प्रेमी से करता रहा, प्रेम-प्रेम आलाप।
प्रेम किया जिसने नहीं,जीवन व्यर्थ प्रताप।।०४।।
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पंचम दिवस वसंत का,माँ शारद का वार।
बिना आपके ज्ञान का, हुआ कहाँ उद्धार? ? ०५।।
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ऊषा खड़ी निहारती, दिखता जो आदित्य।
विरह यामिनी का हुआ, पुनः अंत ही नित्य।।०६।।
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सात वार सप्ताह के, अठवांँ है परिवार।
सुखद रहा परिवार तो, सुखद रहें सब वार।।०७।।
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गाल लाल हैं लाल के, लाल दिखे अब लाल।
लाल-लाल ही दिख रहा, चोंट लगी जब भाल।।०८।।
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बीता सारा दिवस है, किया नहीं कुछ काम।
सोचा अब कुछ बोल दूंँ  , भेजूँ प्रथम सलाम।।०९।।
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हर आँगन तुलसी लगी, तन-मन रखे निरोग।
फल-फूल और पत्तियाँ , सबका है उपयोग।।१०।।
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बातों-बातों में सही ,  कहा मित्र ने चोर।
संकट में जब पड़ गया,बढे मित्र की ओर।।११।।
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तुम मेरी कविता बनी, कवि बन गया "प्रताप"।
एक-दूजे के हम हुए, मिटे सभी संताप।।१२।।
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विधु से पूंछूँ मैं सदा,अब  तक मिले न नैन।
दिखती कैसी प्रेयसी,    हर पल मैं बेचैन।।१३।।
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चोरी करते चोर ये,आदत इनकी जीर्ण।
शब्द-भाव के चोर हैं, सोच बनी संकीर्ण।।१४।।
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शीतल लहरें शीत  की, सिखा रही हैं सीख।
बाहर अब निकलें नहीं,कहता मौसम चीख।।१५।।
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बड़ी बात मत कीजिए, बड़े कीजिए कर्म।
कर्मों से बढ़कर नहीं,   जग में कोई धर्म।।१६।।
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भुला दिया है आज फिर, श्रम संकट संताप ।
सबक़ बड़ा तुम सीख लो ,कहता आज प्रताप।।१७।।
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बिना रुके लिखती रही , तेज कलम की धार।
धोखे से यदि  रुक गयी, पुनः करो तैयार।।१८।।
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दुख हो चाहे सुख मिले, कहें सदा ही सत्य।
चाटुकारिता शुभ नहीं, बोलें नहीं असत्य।।१९।।
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बच्चों में दिखता सदा, ईश्वर का ही रूप।
बच्चों से ही छाँव है, बच्चों से ही धूप।।२०।।
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आचार्य प्रताप