मंगलवार, 24 सितंबर 2024

वीथियाँ गीतों की - स्व. माया अग्रवाल जी

संक्षिप्त समीक्षा: वीथियाँ गीतों की
गीतकार : स्व. माया अग्रवाल जी 
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रकाशन वर्ष: 2020
मूल्य: ₹160

"वीथियाँ गीतों की" स्व. माया अग्रवाल जी द्वारा रचित एक गीत संग्रह है, जो 2020 में स्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। यह संग्रह 80 गीत रचनाओं का एक समृद्ध संकलन है, जो विविध विषयों और भावों को समेटे हुए है।यह पुस्तक दो वर्ष पूर्व प्राप्त हुई थी जब आप इस जगत में हम सब के साथ थीं।
पुस्तक का कवर पृष्ठ एक सुंदर ग्राम्य परिदृश्य से सुसज्जित है, जो पाठक को तुरंत आकर्षित करता है। मुद्रण की गुणवत्ता उत्कृष्ट है, जिसमें स्पष्ट फ़ॉन्ट और उच्च गुणवत्ता वाला कागज़ प्रयुक्त किया गया है। पुस्तक का मूल्य ₹160 निर्धारित किया गया है, जो इसकी गुणवत्ता और सामग्री को देखते हुए उचित प्रतीत होता है।

संग्रह की शुरुआत माँ शारदा की वंदना से होती है, जो भारतीय साहित्य की परंपरा का पालन करती है। कवयित्री ने अपनी रचनाओं में मुख्यतः नारी-केंद्रित विषयों को उठाया है, जिनमें आधुनिक नारी के शक्तिशाली और स्वावलंबी स्वरूप को प्रस्तुत किया गया है।
रचनाओं में विविधता दिखाई देती है। "अमर सुहागन" जैसी रचनाएँ देशभक्ति और वीरांगना की भावना को प्रदर्शित करती हैं, जबकि "आँचल की महिमा" और "आया करवा चौथ" जैसी रचनाएँ भारतीय संस्कृति और परंपराओं को दर्शाती हैं। "बेटियाँ क्या चाहती हैं" नारी सशक्तिकरण पर केंद्रित है।

समाज के विभिन्न वर्गों और मुद्दों को भी कवयित्री ने अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। "गरीब की दुर्दशा" और "वतन रो रहा है" जैसी रचनाएँ सामाजिक चेतना जगाती हैं। "वात्सल्यसुधारस" और "घायल मन" पारिवारिक संबंधों की जटिलताओं को उजागर करती हैं।
   स्व. माया अग्रवाल जी की भाषा सरल और प्रवाहमयी है, जो पाठक को तुरंत आकर्षित करती है। उनकी शैली में भावुकता और गंभीरता का अद्भुत संगम दिखाई देता है। उन्होंने जटिल विषयों को भी सहज और सरल शब्दों में प्रस्तुत किया है, जो उनकी कला का परिचायक है।

"वीथियाँ गीतों की" एक समृद्ध और विविधतापूर्ण गीत संग्रह है, जो पाठकों को भावनात्मक यात्रा पर ले जाता है। यह संग्रह न केवल साहित्यिक मूल्य रखता है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य से भी महत्वपूर्ण है। माया अग्रवाल ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समकालीन समाज के विभिन्न पहलुओं को छुआ है, जिससे यह पुस्तक विभिन्न आयु वर्ग और रुचि के पाठकों के लिए आकर्षक बन जाती है।
"वीथियाँ गीतों की" हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान है। यह संग्रह न केवल काव्य प्रेमियों के लिए, बल्कि समाज और संस्कृति के अध्येताओं के लिए भी एक मूल्यवान संसाधन है। माया अग्रवाल जी की यह कृति उनकी गहन अनुभूति और सूक्ष्म अवलोकन क्षमता का प्रमाण है, जो पाठकों को गहराई से प्रभावित करती है और चिंतन के लिए प्रेरित करती है।

आचार्य प्रताप 

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सोमवार, 23 सितंबर 2024

कुन्ती का पाण्डु विरह

कुन्ती का पाण्डु विरह

हा पाण्डो! विगतोऽसि कुत्र नृपते मत्वा विहाय प्रियाम्।
शून्यं मे हृदयं विदीर्णमधुना त्वद्वियोगाग्निना ॥०१॥
  
मात्स्यां च प्रियपुत्रपञ्चकमिदं त्यक्त्वा गतोऽसि प्रभो।
कस्मै वा कथयामि दुःखमखिलं को वा करिष्यत्यलम् ॥ ०२॥
  
स्मृत्वा त्वां नृपशार्दूलं रोदिमि दिवानिशम्।
कथं जीवामि संसारे त्वया विना महीपते॥०३॥
  
पुत्राणां पालनं कृत्वा राज्यभारं वहाम्यहम्।
किन्तु त्वद्विरहे नाथ हृदयं मम दह्यते॥०४॥
  
यदा पश्यामि ते पुत्रान् तदा त्वां स्मरतेऽन्तरम्।
तेषां वीर्यं गुणान् दृष्ट्वा त्वामेव प्रतिबिम्बति ॥०५॥
  
हस्तिनापुरमध्ये हि वसाम्यहमनाथवत्।
त्वया सह गता सर्वा सुखशान्तिः सुखप्रिय॥०६॥
  
धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च द्वेषं कुर्वन्ति निर्दयम्।
रक्षसे त्वं कथं नाथ स्वर्गलोकनिवासकृत् ॥०७॥
  
युधिष्ठिरो महाप्राज्ञो भीमसेनो महाबलः।
अर्जुनश्च महावीरस्त्वत्पुत्रा वर्धमानकाः ॥०८॥
  
नकुलः सहदेवश्च माद्रीपुत्रौ मनोहरौ।
तेषां रक्षणभारोऽयं मयि न्यस्तस्त्वया विभो ॥०९॥
  
कथं पालयितुं शक्ता त्वद्विहीना तवात्मजान्।
अहं दुर्बलनारी च त्वं तु शक्तो महाबल ॥१०॥
   
स्मरामि तव संवासं प्रेमपूर्णं मनोहरम्।
यदा त्वं मां परिष्वज्य कथयेथाः प्रियं वचः॥११॥
   
वनवासे गते काले त्वया सह सुखप्रदे।
अद्य तत्सर्वमप्यस्ति स्वप्नवत्प्रतिभाति मे ॥१२॥
   
चिन्तयामि सदा त्वां हि निशि वासरमेव च।
त्वद्गुणान् स्मृत्य रोदामि निःश्वसामि मुहुर्मुहुः ॥ १३॥
   
हे नाथ! श्रृणु मे वाणीं यदि श्रोतुं क्षमोऽसि चेत्।
आगच्छ पुनरेवेह पुत्रैः सह वसाम्यहम् ॥१४॥
   
जानामि नैव शक्यं तत् पुनरागमनं तव।
किन्तु प्रार्थये देवान् त्वत्कृते सततं विभो ॥१५॥
   
यावज्जीवं स्मरिष्यामि त्वां च तव गुणान् शुभान्।
त्वद्भक्तिः पावयेन्मां हि सर्वपापेभ्य एव च ॥१६॥
   
पुत्राणां पालनं कृत्वा राजधर्मं च पालयन्।
प्रतीक्षे तं दिनं यत्र पुनर्मिलनमावयोः ॥१७॥
   
यदा यदा च दुःखं मे भवेदतिविषादकृत्।
तदा तदा स्मरिष्यामि त्वां च तव सुभाषितम् ॥१८॥
   
त्वया दत्तं हि संदेशं पालयिष्यामि यत्नतः।
पुत्राणां रक्षणं कृत्वा धर्ममार्गे नयाम्यहम् ॥१९॥
   
यद्यपि त्वं गतो दूरं न दृश्योऽसि ममाधुना।
तथापि त्वं सदा तिष्ठ मम चित्ते हृदि स्थितः ॥२०॥
   
आशास्ते मे मनो नाथ पुनर्दर्शनमावयोः।
यत्र नास्ति वियोगोऽयं न च दुःखं कदाचन ॥२१॥
   
तावत्कालं प्रतीक्षेऽहं धैर्यं धृत्वा सुदुष्करम्।
पुत्रार्थे जीवनं कृत्वा त्वत्स्मृतिं हृदि धारयन् ॥२२॥
   
हे पाण्डो! महाराज त्वं धर्मस्य प्रवर्तकः।
तव मार्गानुसारेण चरिष्यामि सदैव हि ॥२३॥
   
यद्यपि त्वं गतः स्वर्गं त्यक्त्वा मां च सुतान् प्रियान्।
तथापि त्वत्प्रभावेण जीवामः सर्व एव हि ॥२४॥
   
त्वद्वियोगानलेनाहं दह्यमाना दिवानिशम्।
तथापि धैर्यमालम्ब्य कर्तव्यं पालयाम्यहम् ॥२५॥
   
यावज्जीवं स्मरिष्यामि त्वां च तव सुचेष्टितम्।
तव प्रेम च मे शक्तिर्भविष्यति न संशयः ॥२६॥
   
अन्ते च यदा यास्ये त्वत्समीपं विहाय भूम्।
तदा संपूर्णहृष्टा स्यां लब्ध्वा त्वां पुनरेव हि ॥२७॥
   
इदानीं तु प्रतीक्षेऽहं तं दिवसमहर्निशम्।
यदा द्रक्ष्यामि भूयस्त्वां प्रेमपूर्णेन चक्षुषा ॥२८॥
   
हे पाण्डो! मम जीवेश त्वद्वियोगे व्यथाकुला।
तथापि पालयिष्यामि त्वया दत्तं सुसंदेशम् ॥२९॥
   
अन्ते वदामि हे नाथ! त्वयि मे परमा रतिः।
यावज्जीवं स्मरिष्यामि त्वां च तव सुभाषितम्॥३०॥

अहो! कालस्य गतिरियं यन्मया सोढुमक्षमा
तथापि धैर्यमालम्ब्य जीवामि त्वत्कृते विभो॥३१॥

पुत्राणां भाग्यमालोक्य तव कीर्तिं च शाश्वतीम्।
मनः शान्तिमवाप्नोति त्वद्गुणस्मरणेन च॥३२॥

यद्यपि देहतस्त्वं मे दूरे तिष्ठसि पार्थिव।
आत्मना तु सदा मे त्वं समीपे चैव वर्तसे ॥३३॥
   
जीवनस्यान्तिमे काले यदा त्यक्ष्याम्यहं तनुम्।
तदा त्वामेव ध्यायन्ती गमिष्यामि परां गतिम् ॥३४॥
   
इति मे विरहालापः पाण्डोः प्रियतमस्य च।
श्रुत्वा जनाः स्मरन्त्वेनं प्रेम्णः प्रतीकमुत्तमम् ॥३५॥


श्रावणे मासि वर्षायां द्वादश्यां तिथिसंज्ञके।

आचार्यप्रतापेन विरहव्याकुलात्मना॥ ३६॥


कुन्त्याः पाण्डोश्च विरहः काव्येनानेन वर्णितः।

पठतां श्रृण्वतां चैव करोतु शुभमङ्गलम्

॥३७॥

आचार्य प्रताप

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मंगलवार, 17 सितंबर 2024

शान हमारी हिन्दी है।

हिन्दी भाषा 

अंतस  मन  से  नमन  करें  सब   जान  हमारी  हिन्दी  है।
आन    बान   अरु   मान   हमारी    शान  हमारी  हिन्दी  है।
शपथ  ग्रहण  अब  हम  करते  हैं ,
हिन्दी     को  अपनाएँगे ।
हिन्द  से  लेकर  विश्व  पटल  तक,
हिन्दी   अलख   जगाएँगे।
मान  ज्ञान  विज्ञान  की  भाषा,
गौरवगाथा         गाएँगे।
पाठक     साधक   और     विचारक,
भारत     भाल        चढाएँगे।।
रहे     सदा   अभिमान   हमें   पहचान    हमारी   हिन्दी   है ।।
अंतस  मन  से  नमन  करें  सब   जान  हमारी  हिन्दी  है ।।०१।।
तुलसी   मीरा   वृंद   कबीरा ,
सूर  बिहारी – वाणी है।
हिन्दी    मेरे   हिंद    देश     की ,
भाषा   इक    कल्याणी    है।
सत्य   निष्ठ  उत्कृष्ट  यही  है ,
सुनें  यही  कविवाणी  है 
अर्पण  - तर्पण   और  समर्पण ,
कहते  सब  सुरवाणी  है ।
दिनकर  पंत  निराला  कह  रसखान  हमारी  हिन्दी  है।
रहे     सदा   अभिमान   हमें   पहचान    हमारी   हिन्दी   है ।।०२।।

जिसके  मस्तक  पर  छोटी - सी ,
लगती  प्यारी  बिन्दी  है ।
सारी  दुनिया  कहती  हैं  अब ,
 लगती  न्यारी  हिन्दी  है ।
जनमानस     का     अभिनंदन  है ,
अभिव्यंजन  की  आशा  है ।
बंधन  मंथन  अनुकंपन  की ,
साहित्यिक  यह  भाषा  है।
ज्ञान  गीत – संगीत छंद  विज्ञान  हमारी  हिन्दी  है।।
रहे     सदा   अभिमान   हमें   पहचान    हमारी   हिन्दी   है ।।०३।।
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-आचार्य प्रताप

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

छगन छंद सवैया पुस्तक समीक्षा

समीक्ष्य कृति: छगन छंद सवैया
समीक्षक:: आचार्य प्रताप

पुस्तक: 'छगन छंद सवैया'  
रचनाकार: डॉ छगन लाल गर्ग 'विज्ञ'  
प्रकाशक: उत्कर्ष प्रकाशन, मेरठ, उत्तर प्रदेश  
मूल्य: 250 रुपये  
ISBN 8194942705, 9788194942702
संस्करण: प्रथम, 2020

सिरोही राजस्थान निवासी प्रबुद्ध साहित्यकार डॉ. छगन लाल गर्ग जी  की यह काव्य कृति उत्कर्ष प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पाँचवी पुस्तक है इससे पूर्व कवि की चार पुस्तकें उत्कर्ष प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें मदांध मन, रंजन रस, तथाता और विज्ञ छंद कुण्डलियाँ शामिल हैं। कवि की अभी तक सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं .
             हिंदी साहित्य के विशाल आकाश में एक नया नक्षत्र उदित हुआ है - डॉ छगन लाल गर्ग 'विज्ञ' की कृति 'छगन छंद सवैया'। यह पुस्तक न केवल एक काव्य संग्रह है, बल्कि सवैया छंद की विविध शैलियों का एक समृद्ध कोष भी है। इस समीक्षा में हम इस अद्वितीय कृति के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालेंगे और इसके महत्व को समझने का प्रयास करेंगे।

डॉ गर्ग ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा हिंदी साहित्य, विशेषकर काव्य के क्षेत्र में समर्पित किया है। उनकी यह कृति उनके दीर्घकालीन अनुभव और गहन अध्ययन का परिणाम है। 'छगन छंद सवैया' में उन्होंने न केवल अपनी काव्य प्रतिभा का प्रदर्शन किया है, बल्कि सवैया छंद के विभिन्न रूपों को एक साथ प्रस्तुत करके हिंदी काव्यशास्त्र को एक अनमोल उपहार दिया है। इस कृति की भूमिका आदरणीय शैलेन्द्र खरे सोम जी ने लिखा है कि अन्य विद्वानों ने शुभकामना संदेश दिए हैं।

'छगन छंद सवैया' में सवैया छंद की 13 विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया गया है। प्रत्येक शैली की अपनी विशिष्ट लय, मात्रा और संरचना है, जिसे लेखक ने बड़ी कुशलता से निभाया है। इन शैलियों का विस्तृत विवरण इस प्रकार है:

1. दुर्मिल सवैया(24 वर्ण): इसमें 7 सगण होते हैं। यह शैली अपनी गतिशीलता और लयात्मकता के लिए जानी जाती है।

2. मतगयंद सवैया (23 वर्ण): इसमें 7 भगण और 2 गुरु होते हैं। यह शैली अपनी गंभीरता और गरिमा के लिए प्रसिद्ध है।

3. गंगोदक सवैया (24 वर्ण): इसमें 8 रगण होते हैं। इसकी लय गंगा के प्रवाह की तरह मधुर और निरंतर होती है।

4. मानिनी सवैया (23 वर्ण): इसमें 7 जगण और एक लघु-गुरु होता है। यह शैली भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है।

5. महाभुजंगप्रयात सवैया (24 वर्ण): इसमें 8 यगण होते हैं। यह शैली अपनी तीव्र गति और प्रभावशाली ध्वनि के लिए जानी जाती है।

6. सुखी सवैया (26 वर्ण): इसमें 8 सगण और 2 लघु होते हैं। यह शैली सुखद और आनंददायक भावों की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त है।

7. अरविंद सवैया (25 वर्ण): इसमें 8 सगण और 1 लघु होता है। इसकी संरचना कमल के पत्तों की तरह सुंदर और संतुलित होती है।

8. अरसात सवैया (24 वर्ण): इसमें 7 भगण और 1 रगण होता है। यह शैली अपनी विविधता और लचीलेपन के लिए जानी जाती है।

9. किरीट सवैया (24 वर्ण): इसमें 8 भगण होते हैं। यह शैली अपनी राजसी गरिमा और प्रभाव के लिए प्रसिद्ध है।

10. सुमुखी सवैया (23 वर्ण): इसमें 7 जगण और एक लघु-गुरु होता है। यह शैली सौंदर्य और माधुर्य की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त है।

11. मदिरा सवैया (22 वर्ण): इसमें 7 भगण और 1 गुरु होता है। इसकी लय मादक और मोहक होती है।

12. वाम सवैया (24 वर्ण): इसमें 8 जगण होते हैं। यह शैली अपनी विशिष्टता और आकर्षण के लिए जानी जाती है।

13. मुक्तहरा सवैया (24 वर्ण): इसमें 8 जगण होते हैं। यह शैली स्वतंत्र और मुक्त भावों की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त है।

इन विविध शैलियों का प्रयोग पुस्तक को एक समृद्ध और विविधतापूर्ण बनाता है, जो पाठक को छंदशास्त्र की गहराइयों में ले जाता है। डॉ गर्ग ने प्रत्येक शैली के साथ न्याय किया है, उनकी विशिष्टताओं को बनाए रखते हुए अपने भावों और विचारों को सशक्त ढंग से व्यक्त किया है।

'छगन छंद सवैया' में निहित काव्य विविध विषयों को समेटे हुए है। लेखक ने अध्यात्म, प्रकृति, गुरु भक्ति, और समाज के विभिन्न पहलुओं को अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:

अध्यात्म दर्शन: कवि ने गहन आध्यात्मिक अनुभूतियों को सरल और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। उनकी रचनाओं में ईश्वर के प्रति समर्पण, आत्मा-परमात्मा के संबंध, और जीवन के उच्च लक्ष्यों की खोज का भाव स्पष्ट रूप से झलकता है।

प्रकृति चित्रण: प्राकृतिक सौंदर्य का जीवंत और मनोहारी वर्णन पाठक को मंत्रमुग्ध कर देता है। कवि ने प्रकृति के विभिन्न रूपों - चाँदनी रात, बहता नदी, खिले फूल - का चित्रण बड़ी कुशलता से किया है।

गुरु भक्ति:  गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा और समर्पण की भावना कविताओं में स्पष्ट झलकती है। कवि ने गुरु की महिमा का गुणगान करते हुए उनके महत्व को रेखांकित किया है।

 सामाजिक चेतना: समाज के विभिन्न वर्गों और उनकी समस्याओं पर कवि की पैनी नज़र है। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों, असमानता, और अन्याय पर कटाक्ष किया है, साथ ही सामाजिक एकता और मानवीय मूल्यों की महत्ता को रेखांकित किया है। 

डॉ गर्ग की भाषा परिष्कृत और समृद्ध है। वे जटिल विचारों को भी सरल और सुबोध भाषा में व्यक्त करने में सफल रहे हैं। उनकी शब्द चयन की क्षमता प्रशंसनीय है, जो कविताओं को एक विशिष्ट लय और संगीतात्मकता प्रदान करती है।

उनकी भाषा में तत्सम और तद्भव शब्दों का सुंदर मिश्रण देखने को मिलता है। जहाँ एक ओर वे 'चेतन', 'निर्गुण', 'निराकार' जैसे तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हैं, वहीं दूसरी ओर 'चाँदनी', 'हरियाली', 'नाड़ी' जैसे तद्भव शब्दों का भी कुशलतापूर्वक उपयोग करते हैं। यह मिश्रण उनकी भाषा को समृद्ध और प्रभावशाली बनाता है।

अलंकारों का प्रयोग भी उल्लेखनीय है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा जैसे अलंकारों का कुशल प्रयोग कविताओं को और अधिक प्रभावशाली बनाता है।

आचार्य प्रताप

बुधवार, 11 सितंबर 2024

शिव की बारात - घनाक्षरी

घनाक्षरी

गंगा जी को सिर साधे,
वासकि को कंठ बाँधे,
त्रिशूलपाणि संग में 
ही लाए हुए बाराती।

मस्ती में झूम रहे,
ताल पे थिरक रहे,
शिव-शक्ति गीतों पर
छाए हुए बाराती।

चंद्र शीश पर शोभे,
चक्षु त्रय सब लोभे,
कैलाश निवासी साथ
में लाए हुए बाराती।

भारी भक्त भीड़ भरी 
धन्य-धन्य कर कर  
प्रेम-वर्षा कर के 
भिगाए हुए बाराती।।०१।।

तांडव धुन बजती
गणों की टोली सजती
ब्रह्मांड भर उत्सव
मनाय रहे बाराती।

कैलास-हिमाद्रि तक
जयकारे गूँज रहे
बादल आकाश में 
नचाय रहे बाराती।
वाहन हैं बैल-नंदी
संग हैं गणेश वंदी
 भूत-प्रेत संग में 
दिखाय रहे बाराती।

महिमा में महादेव
इंद्र सह सब देव
भस्म से तन सारा
सजाय रहे बाराती।।०२।।

वेद-मंत्र उच्चारण
गूँजता वातावरण
ऋषि-मुनि मिलकर
गाय रहे बाराती।

अप्सराएँ नृत्य करें
किन्नर संगीत भरें 
निज वीणा नारद
बजाय रहे बाराती।

रुद्राक्ष माला धारण 
त्रिपुंड तिलक तारण
भोलेनाथ दर्शन
पाय रहे बाराती।

काशी से केदार तक
नमः शिवाय की धाक, 
शिव-शक्ति मेल पर 
झूम रहे बाराती।।०३।।

चंदन की गंध फैली
मंदाकिनी धार रेली
पुष्प वर्षा करते
सुहाय रहे बाराती।

डफली-मृदंग थाप
मिटा रही सारा ताप
ढोल-नगाड़े धुन
बजाय रहे बाराती।

गण सब मतवाले
भूत-प्रेत भी निराले
प्रकृति-तत्व सारे
सुभाय रहे बाराती।

योगी संत तपस्विन
सिद्ध साधु संन्यासिन 
ज्ञान-ज्योति संग में 
जगाय रहे बाराती।।०४।।

कर्पूर- आरती थाल
महकती सालों साल
भक्ति-द्विप हाथ में 
जलाय रहे बाराती।

शिव-अंब का मिलन 
हर्षे जन गण मन 
आनंद की लहरें
बहाय रहे बाराती।

त्रिलोक में छाई खुशी
मिट गई हर कशी
अमृत सम धारा
बरसाय रहे बाराती।

काल भी थम-सा गया
लगे जग नया-नया 
अद्वैत का संदेश
सुनाय रहे बाराती।।०५।।

आचार्य प्रताप

मेरी बगिया के फूल पुस्तक की समीक्षा

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक:: 'मेरी बगिया के फूल' 
रचनाकार:: आचार्य प्रताप
मूल्य:: १९९
प्रकाशक :: Book clinic Publisher, Bilaspur Chhattisgarh
आई एस बी एन (ISBN) : 978-93-5426-001-8
पुस्तक समीक्षक:: शास्त्री रेखा सिंह जयशूर

श्री हरिः 

काव्यसङ्ग्रहोऽयं "मम उद्यानस्य पुष्पाणि" (मेरी बगिया के फूल) इति नामधेयः।
आचार्यप्रतापस्य कृतिरेषा बहुविधविषयैः समलङ्कृता।
छन्दोविधानं काव्यशिल्पं च प्राचीनाधुनिकयोः समन्वयम्।
सांस्कृतिकमूल्यानां सामाजिकचेतनायाश्च प्रतिबिम्बं दृश्यते।

प्रकृतेः सौन्दर्यं मानवजीवनस्य च प्रतिबिम्बम्।
अध्यात्मं लोकतन्त्रं च समकालीनविषयाश्च समाहिताः।
पौराणिककथानां नूतनव्याख्या दृश्यते कृतौ।
शिक्षामूल्यानि नैतिकतत्त्वानि च काव्येऽस्मिन् प्रकाशन्ते।

"मेरी बगिया के फूल" नामक काव्य-संग्रह का यह विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। इस काव्य संग्रह से प्राप्त रचनाओं के आधार पर, मैं इसके गहन विवेचन को आपके समक्ष रखती हूँ।

विषय वैविध्य एवं सांस्कृतिक समन्वय: इस काव्य-संग्रह में विषयों का अद्भुत वैविध्य दृष्टिगोचर होता है। यह वैविध्य न केवल विषयों की विस्तृत श्रृंखला में परिलक्षित होता है, अपितु भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों के सुंदर समन्वय में भी। "श्रीगणेशाय नमः" एवं "नमामि मातु शारदे" जैसी रचनाएँ भारतीय आध्यात्मिक परंपरा की ओर संकेत करती हैं, जबकि "दोहा वाणी वंदना" एवं "श्रीराम" हमारी सांस्कृतिक विरासत के प्रति आचार्य प्रताप के गहन आदर को प्रदर्शित करती हैं। साथ ही, "आधुनिक जीवनशैली" एवं "मतदाता और मतदान" जैसे शीर्षक वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर उनकी पैनी नज़र का परिचय देते हैं।

छंद-विधान एवं काव्य-शिल्प: संग्रह में छंदों के प्रयोग की बहुलता विशेष ध्यान आकर्षित करती है। "कुंडलिनी-छंद", "चौपाई छंद", "गीता-छंद", "भुजंग प्रयात - छंद" इत्यादि शीर्षक यह प्रमाणित करते हैं कि अग्रज भ्राता श्री न केवल पारंपरिक छंद-विधान में निपुण हैं, अपितु उन्होंने इन छंदों को आधुनिक संदर्भों में भी सफलतापूर्वक प्रयुक्त किया है। यह काव्य-परंपरा के प्रति सम्मान एवं नवीनता के प्रति उत्साह का अद्भुत संगम प्रस्तुत करता है।

प्रकृति-चित्रण एवं ऋतु-वैभव: "मेरी बगिया के फूल" शीर्षक स्वयं में प्रकृति के प्रति कवि प्रताप के प्रेम को व्यक्त करता है। "ऋतु-बसंत" जैसी रचनाएँ ऋतु-चक्र के साथ मानव-जीवन के सामंजस्य को रेखांकित करती प्रतीत होती हैं। यह संभवतः उनकी उस दृष्टि को प्रकट करता है जो प्रकृति में मानव-जीवन के उत्थान-पतन, हर्ष-विषाद का प्रतिबिंब देखती है।

शैक्षिक एवं नैतिक मूल्य: "बालक शिक्षा" एवं "विद्यार्थी और परीक्षा" जैसे शीर्षक यह संकेत देते हैं कि आचार्य प्रताप ने शिक्षा के महत्व और युवा पीढ़ी के उत्थान पर विशेष ध्यान दिया है। ये रचनाएँ संभवतः न केवल शैक्षिक महत्व की हैं, अपितु समाज में नैतिक मूल्यों के संवर्धन का माध्यम भी बन सकती हैं।

भावात्मक गहनता एवं वैयक्तिक अनुभूति: "विरह-मनुहार" एवं "यादें" जैसी रचनाएँ उनकी भावात्मक गहनता को प्रकट करती हैं। ये शीर्षक यह संकेत देते हैं कि अग्रज भ्राता श्री ने व्यक्तिगत अनुभवों और भावनाओं को भी काव्य का विषय बनाया है, जो पाठकों को भावात्मक स्तर पर जोड़ने में सक्षम हो सकता है।

सामाजिक चेतना एवं राष्ट्रीय भावना: "मतदाता और मतदान" जैसी रचना लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नागरिकों की भूमिका पर प्रकाश डालती प्रतीत होती है। यह उनकी सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय भावना को उजागर करती है, जो आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण है।

पौराणिक संदर्भ एवं आधुनिक दृष्टिकोण: "एक दृश्य - रामायण से" शीर्षक यह दर्शाता है कि कवि प्रताप ने पौराणिक कथाओं को आधुनिक संदर्भ में पुनर्व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। यह परंपरा और आधुनिकता के मध्य सेतु निर्माण का सराहनीय प्रयास प्रतीत होता है।

संरचनात्मक सौंदर्य एवं काव्य-कौशल: रचानाओं से स्पष्ट होता है कि संग्रह में विभिन्न काव्य-रूपों का प्रयोग हुआ है। "दोहा", "छंद", "गीत", "गज़ल" इत्यादि का समावेश आचार्य प्रताप के बहुआयामी काव्य-कौशल को प्रदर्शित करता है।

"मेरी बगिया के फूल" एक ऐसा काव्य-संग्रह प्रतीत होता है, जो भारतीय काव्य-परंपरा की समृद्ध विरासत को आधुनिक संवेदनाओं के साथ जोड़ता है। यह संग्रह न केवल साहित्यिक मूल्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, अपितु सामाजिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के संवर्धन में भी योगदान दे सकता है। अग्रज भ्राता श्री ने परंपरा और आधुनिकता, व्यक्तिगत और सामाजिक, आध्यात्मिक और भौतिक के मध्य एक सुंदर संतुलन स्थापित किया प्रतीत होता है। यह संग्रह निश्चय ही हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान सिद्ध हो सकता है।

काव्यं प्रतापस्य सुगीतमाला
प्राचीननूत्नं परिपोषयन्ती।
संस्कृत्युद्धारं समाजचिन्तां
वहन्ति पुष्पाणि मनोहराणि॥
छन्दोविधानं शिल्पसौष्ठवं च
प्रकृतिवर्णनं जीवनानुभूतिः।
शिक्षामूल्यानि लोकतन्त्रचिन्ता
काव्येऽत्र सर्वं सुसमन्वितं हि॥

आप सभी को इस काव्य संग्रह को एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए।
पुस्तक अमेज़न स्टोर एवं किंडल संस्करण में भी उपलब्ध है।

पुस्तक समीक्षक
शास्त्री रेखा सिंह जयशूर 
शोध छात्रा:: महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जयिनी ,मध्यप्रदेश