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व्याकुल मन की वेदना , बन जाती है काव्य।
निज पीड़ा जब-जब कहूँ, होती सदा सु-श्राव्य।।०१।।
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दृग से दृगजल शुष्क अब , गाँवों से अपनत्व।
शहर गये जन-गण सभी , मेटे मौलिक तत्व।।०२।।
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हम सुधरे सुधरा जगत , करें नवल नित शोध।
जिस दिन फल इसका मिले , होगा प्राणी बोध।।०३।।
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मन से बने महान हम , त्यागें तन सौंदर्य।
मन से हुए महान जब , मिलता धन-ऐश्वर्य।।०४।।
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मधुर शीत की धूप सम , प्रिये! तुम्हारी प्रीत।
एकाकीपन गा रहा , पावस ऋतु के गीत।।०५।।
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दृगजल अभिसिंचन करें , शुभे! तुम्हारा नाम।
प्रीत-विरह में बीतते , दिन के आठों याम।।०६।।
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जटिल परिस्थित में नहीं , होना कभी उदास।
याद रखो आता सदा , पतझड़ फिर मधुमास।।०७।।
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धैर्य बना बढ़ते रहें , करें प्रज्वलित दीप।
कर्मों का प्रतिफल मिले , दिखता लक्ष्य समीप।।०८।।
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मन बैरागी हो बढ़ा, स्वयं मोक्ष की ओर।
अग्र-पाश्व सब त्यागकर , त्यागे जीवन डोर।।०९।।
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दृग से दृगजल जो गिरा , मनुज दृष्टि से मीत।
कभी नहीं उत्थान हो , यही जगत की रीत।।१०।।
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व्यथा शोक गम वेदना , दुःख व्याधि संताप।
सहज नहीं पर उन्नयन , बढते रहो प्रताप।।११।।
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होता मन अवसन्न जब , रखें नियंत्रण आप।
नहीं बाद फिर ग्लानि ही , मिलती कहे प्रताप।।१२।।
आचार्य प्रताप
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