सबसे पहले *हिन्दी* को समझते है ।यह जिस भाषा धारा के विशिष्ट दैशिक रुप का नाम है वह है संस्कृत ।संस्कृत का समय 1500ई.पूर्व से 500ईस्वी पूर्व तक माना जाता है।तत्कालीन समय में बोलचाल की भाषा संस्कृत ही थी। उसी का शिष्ट और मानक रूप सँस्कृत साहित्य में प्रयुक्त हुआ।यह धारा दो भागों में विभाजित हुई -1--वैदिक संस्कृत --इसमें वैदिक यानि वेदों की रचना हुई। वैदिक वाङ्गमय एक समृद्ध कोश है ।
2--लौकिक या क्लासिकल संस्कृत -इसमें वाल्मीकि,व्यास,भास,अश्वघोष,कालिदास,माघ आदि ने सृजन किया।
इस समय तक मानक भाषा तो एक संस्कृत थी परंतु तीन क्षेत्रीय बोलियाँ विकसित होने लगी थी।जिनको पश्चिमोत्तरी,मध्यदेशी तथा पूर्वी नाम से जाना जा सकता है।
संस्कृतकालीन बोलचाल की भाषा विकसित होते होते 500ई.पू. के बाद काफी बदल गयी जिसे *पालि* नाम दिया गया।जैन धर्म का पूरा वाङ्गमय संस्कृत ,पालि तथा बौद्ध ग्रंथों यथा विनय पिटक ,धम्म पिटक आदि में पालि का यह रुप ,संस्कृत का ही शिष्ट मानक रुप था।
पहली ईस्वी तक आते आते यह बोल चाल की भाषा और परिवर्तित हुई तब पहली ईस्वी से 500ई. तक इसका नाम *प्राकृत* हुआ।
इस काल तक कई क्षेत्रीय बोलियाँ अस्तित्व में आ चुकी थीं।
प्राकृत से अपभ्रंश का विकास हुआ।आज जो अपभ्रंश साहित्य मिलता है उसके दो ही भाषा रुप मिलते हैं किंतु प्राकृत के मुख्य पाँच क्षेत्रीय रुपों तथा आज की दस आर्य भाषाओं में हिन्दी अस्तित्व में आई।
इस तरह *हिन्दी* भाषा का उद्भव अपभ्रंश के शौरसेनी,अर्धमागधी और मागधी रुपों से हुआ।
(उपरोक्त विवेचन हिंदी का अस्तित्व जानने हेतु उपयोगी लगा अतः लिखने का प्रयास किया।यद्यपि हिंदी का विकास ,प्रारंभिक रुप आदि बहुत विस्तारित है।)
**छंदविकास करने वाले कवियों का योगदान*
जैसा की पूर्व में कहने का प्रयास किया कि हिन्दी साहित्य का अस्तित्व ज्यादा पुराना नहीं।
प्रारंभ में बोल चाल से ही सभी ज्ञान मौखिक रुप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्ताँतरित होता था। चाहे वो लोकगीति होंं,परंपरायें या अन्य ललित कलायें ।
भारतेंदु काल से पहले अनेक कवियों ,लेखकों द्वारा ऐसे ग्रंथों.की रचना हो चुकी थी जिनमें कवियों के व्यक्तित्व व कृतित्व का परिचय दिया गया --चौरासी वैष्णवन.की वार्ता,भक्तमाल ,कालिदास हजारा ...आदि परंतु काल क्रम,सन् संवत् का अभाव होने से इन्हें साहित्य इतिहास में शामिल न किया जा सका। *यह अलग विषय विस्तार है*
वीरगाथा काल ,भक्तिकाल व रीतकाल में हिन्दी साहित्य की धारा अक्षुण्ण क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हुई।तत्कालीन परिस्थितियाँ विभिन्न छंदों की उत्पत्ति का आधार बनी। इन काव्य रचनाओं को बाद में विभिन्न छंदों में पहिचाना गया ,उनकी गेयता ,वर्ण क्रम ,मात्रा आदि के आधार पर। छंदों के लिए प्रथम साहित्य पाणिनी का छंद शास्त्र है संभवत् पिंगल भाषा में है ।कहते हैं उसका अनुवाद हिन्दी संस्कृत अन्य भाषाओं में किया गया जो आज कहीं कहीं उपलब्ध है।
निसंदेह इन काव्य रचनाओं का केंद्र लोक रीति व परिस्थितियाँ हीं थी।
कुछ छंद सस्वर गाँवों की चौपाल पर वाद्ययंत्र यथा मंजीरा ,ढोलक,खडताल आदिके साथ गाये जाते थे। जिनमें आल्हा प्रमुख था।
धीरे धीरे छंदों ने मानस मन को प्रभावित किया।परंपरा से आधुनिक काल तक आते आते छंद सृजन और परिमार्जित हुआ। ब्रज ,बुंदेली ,आदि बोलियों से परिमार्जित होकर शुद्ध खड़ी बोली छंद की भाषा बनने लगी। जिसने तत्कालीन साहित्यकार समाज को आकर्षित किया।
वर्तमान में जो नवोदित साहित्यकार हैं उनका रुझान इस ओर काफी बढ़ा जो भारतीय साहित्य को समृद्ध करने में योगदान दे रहा है।
【स्वप्रेरित ,मौलिक विचार]
बहुत सुन्दर और जानकारीपरक आलेख।
जवाब देंहटाएंनमन श्रद्धेय श्री
हटाएं