सुनो मैं!
खोल दूँगा राज़
सारे गुप्त रक्खे जो।
कहो तो
बोल दूँ मैं बात
सारी मध्य होती जो।
कहो
तो बोल दूँ
कितनी बिताई सर्द में रातें।
जगत न
जानता तेरी-
मेरी वो अनकही बातें।।
जगत के
ही लिए तेरा ,
मेरा परित्याग यूँ करना।
जगत के
ही लिए मेरा
यूँ तुम पर जान से मरना।।
जो कान्हा को
था राधा से
जो मोहन को था मीरा से।
वही सब था
हमारे मध्य मैं
कहता हूँ उर पीड़ा।।
मैं जग को
वो भी बोलूँगा
नही जो कह सका तुमसे।
वो मेरी
दोस्ती न थी
वो मेरा प्यार था तुमसे।।
आचार्य प्रताप
बहोत सुन्दर हे हर लाइन.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका।
हटाएंप्रेरक प्रतिक्रिया के लिए।
नमन