क्या साहित्य-रचना,विशेषकर कविता की विषयवस्तु और उसकी
भाषा शाश्वत होते हैं, जिनमें यथास्थितिवाद रूढ़ि की तरह जड़
जमाए बैठा रहता है? अगर वास्तव में ऐसा है तो आगे कुछ
लिखने-सिरजने की गुंजाइश ही नहीं रहती।
क्या कविता में से गद्य का भी पूर्ण निषेध है? अगर ऐसा है तो संस्कृत भाषा का बहुत सारा
गद्यसाहित्य काव्य कहलाने की पात्रता ही नहीं रखता,जिसे कभी
से काव्य की संज्ञा से अभिहित किया गया है।
आप एक बात तो कह सकते हैं कि काव्य और कविता, ये दो वस्तुएँ हैं,एक
नहीं। पर वस्तुतः यह हमारे कथन और स्थापनाओं को सुविधाजनक बनाने की वाचिक कोशिश
है। एक तरह से सत्य को अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास। पर चलिए,हम इसे भी स्वीकार कर लेते हैं।
विषयवस्तु का क्षेत्र न तो सीमित होता है और न
शाश्वत। साहित्य के विषय हमेशा परिवर्तनशील रहे हैं,काव्य और कविता के भी।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जिस प्रकार
काव्य का काल-विभाजन किया है, यदि विषयवस्तु शाश्वत रहती तो यह विभाजन संभव न होता। यह आधुनिक क्या कविता का
उत्तर-आधुनिक काल है।प्रत्येक 5 या 10 वर्षों
के अंतराल पर यह काल परिवर्तनशील है, इसे पीछे लौटा लेना
सम्भव नहीं।
परम्परा वही है जो हमेशा नवता के स्वागत के लिए
उद्यत है, नहीं तो वह त्यागने योग्य रूढ़ि
है। रूढ़ियाँ जड़ होती हैं, उनमें भी रस-प्राण रहित मृत जड़।
जिसमें से नव-पल्लव के फूटने-विकसने की सम्भावना न बचे।
खेद है कि स्वयंभू आचार्यगण शास्त्रों से चिपके
हुए हैं और उनके उल्लेखों को अपौरुषेय वेद की ऋचाओं की तरह आप्तवचन मानते हैं जबकि
शास्त्रों में हमेशा लोच की प्रवृत्ति रहती आई है। दर्शन में भी। द्वैत भी,अद्वैत भी,विशिष्टाद्वैत
भी। और भी अनेक दर्शन। एकं सत विप्रा: बहुधा वदन्ति जैसी मान्यता भी आयातित न होकर
हमारी परम्पराओं की ही मंगलध्वनि है।
मुझे आश्चर्य होता है कि हमारे सर्जकों में
इतना कठमुल्लापना और जड़भाव कहाँ से घुस आया?
कहाँ से इतनी कूपमण्डूकता पैदा हो गई। याकि इस जड़ता में ही उन्हें
अपना जीवन दिखाई देता है। आजकल सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण इस जड़ता ने
अपने पाँव समेटे नहीं हैं, उल्टे फैलाए हैं। कोई अपने घर मे
कछुआ रख रहा है, कोई विंड-चैम्प चौखट के बीच लटका रहा है तो
मोटे से थुलथुले व्यक्ति को लाफिंग बुद्धा बताकर सत्कारने में लगा हुआ है। मतलब यह,कि हमारी रूढ़ियाँ कम पड़ने लगी हैं और हम रूढ़ियों का आयात किए जा रहे हैं।
बलिहारी हमारे ज्योतिषशास्त्रियों की और व्हाट्सएप
के विद्वानों की, वे विभिन्न प्रकार की मांगलिक
वस्तुओं के आधान और अवस्थापन में सुख-समृद्धि के निर्देश बताने में लगे है और लोग
सत्यवचन महाराज कहकर उनका अनुसरण करने में जी-जान-जेब से जुटे हैं।
अनुसरण की यह भेड़चाल यह भी स्थापित करती चलती है कि अमुक कार्य या क्रिया तो पूर्णतः वर्जित है ही। हम विकास का नहीं,वर्जनाओं का और निषेध का शास्त्र रचने में लगे हैं।ऐसा शास्त्र हमें डराने में लगा है जिसकी कभी बहुत अधिक प्रासंगिकता रही ही नहीं।
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