शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

गाँधीगीरी

गुस्ताख़ी माफ़

गाँधी  को कहते सब आँधी  ,रोक नहीं कोई  पाया।
जन-जन जाने जन्में थे वो , दो अक्टूबर जब आया।

अत्याचारी अंग्रेजों से , भारत निर्मल  कर डाला।
ऐसे गाँधी बापू  तुमको , शब्द गुच्छ की यह माला।

गुजरात का शहर था सुंदर ,  कैसी प्रभु  रचते माया।
पुतलीबाई करमचंद थे , मात-पिता की थी छाया।

दीवान पिता थे करमचंद अरु ,  धर्म परायण थीं  माता।
सत्य अहिंसा का हम सबको , पाठ तु ही तो सिखलाता।

साढ़े तेरह वर्ष हुए तो , सिंदूर चढ़ाया था माथा।
तब कस्तूरबा बनी भार्या , सुन लो अब इनकी गाथा।

हरी, मणी अरु राम , देव थे , चार तुम्हारे थे लाला।
पुत्ररत्न से भरे हुए थे , नहीं जनी कोई बाला।

जीवन में संघर्ष बहुत था, तब भी धर्म नहीं छोड़ा।
अंग्रेजों की अकड़ निकली , बम बारूद नहीं फोड़ा।

शस्त्र नहीं थे पास तुम्हारे , एक मात्र तो थी लाठी।
धोती चश्में में तू रहता , वेदों का भी था पाठी।

आंदोलन में जीवन बीता , भूल गए तब परिपाटी।
सन् सैंतालीस में तुमने तो ,  नाम करा ली यह माटी।

अंग्रेजों को भगा दिया था ,  गृहयुद्ध की अब बारी।
कुर्सी  नेहरू को दी तुमने ,  कहा वही है अधिकारी।

'लौहपुरुष' को किया किनारे ,   नीति नई नित रच डाली।
इतना सब कर डाला  फिर भी , लोग नही देते गाली।

तेरे कार्यों को जन-जन तक ,  नेहरू ने है पहुँचाया।
गाँधी  'राष्ट्रपिता बापू बन , दुनिया में है अब छाया।

सच को सच कहने का साहस ,  कम लोगों में  है देखा।
सत्य सृजन सृजता प्रताप पर ,पार करूँ अब सब रेखा।

आचार्य प्रताप

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