वचन सम्बन्धित विसंगतियाँ

 चिड़िया : एकवचन-बहुवचन

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जैसे 'महिला' का बहुवचन 'महिलें' नहीं बनता
ऐसे ही 'चिड़िया' का बहुवचन 'चिडियें' नहीं बनता
ये क्रमशः 'महिलाएँ' और 'चिड़ियाएँ' बनेंगे--
सहज उदाहरण से समझाया उस कवि ने
जिसका भाषा और व्याकरण पर उतना ही अधिकार था,
जितने अधिकार से उसकी कविता में मौज़ूद थी संवेदना

बहुवचन रचने के लिए
इकाई की निजता और अस्मिता का संक्षेपण
किंतना बर्बर और अमानवीय है,
यह सोच जितनी जड़ व्याकरण में थी,
अब गतिमान मनुष्यों की हरकतों में तो नहीं बची
'महिला' में शायद महिला होने का घनत्व
आकारांत संज्ञा के अस्तिव के लहराते पल्लू से भी
कुछ अधिक ही रहा होगा कि
वह न 'महिलें' बनी और न 'महिलों'
अपितु 'बहुवचन' होने के सभी उपक्रमों में
बचा ले गई अपना नाम-गोत्र
बावज़ूद कि जितने परिवर्तन
उसने परवर्ती जीवन में किए अंगीभूत,
उतने कम-से-कम चिड़िया ने तो कभी नहीं

बहुवचन होने का वृहदाकार लालच रचते हुए
भाषाशास्त्रियों ने यों लगातार फेंका प्रलोभन
एक अतिरिक्त व्यंजन या एक अतिरिक्त स्वर का
विरूपण करने की शास्त्रीय ज़िद में
और 'लेडी' को 'वाई' के बदले
'एस' के साथ मिले 'आई' और 'ई' भी
'ख़ातून' को 'ख़वातीन' बनने के क्रम में
'वा' का वृंहण मिला
और 'ऊकार' के लोपन के एवज़ में 'ईकार' का अन्तर्गोपन

'महिला' के समक्ष
लगता है कि 'स्त्री' और 'लड़की' कमज़ोर साबित हुईं
और बहुवचन होने के क्षण दीर्घ का लघु होना
बिसूरती रहीं

आज भी मेरी कविता 'चिड़ियों' को चावल डालती है
और 'चिड़ियों के शोर की झाँझर झनकार कर' जैसे
सांगीतिक ज़िक्रों से बिना अपराधबोध के है लबरेज़
जो अपने अस्तित्व के लिए
चावलों-सी बिखरती अहैतुकी और धौली कृपा की
है मोहताज़
कुछ तो दंड भुगतेगी ही बहुवचन होने का
भले ही झाँझर-सी घुले कान में उसकी आवाज़,
पर प्रत्यक्षतः करे शोर करने की धृष्टता,
मेरा अधिकार बनता है कि कविता में जगह देते हुए भी
करूँ उसका संज्ञा-विरूपण

इतनी फुर्तीली है चिड़िया
कि उसे अन्यथा दंडित करने के मेरे पास नहीं हैं
दूसरे विकल्प
मेरे छांदसिक दुराग्रह
'चिड़ियाओं' को 'चिड़ियों' होने देते हैं
काव्य-मर्यादा का पाठ पढ़ाते हुए
ये मर्यादाएँ किसी देशज शब्द की ऐसी-तैसी होने देती हैं
पर छूने की हिम्मत नहीं करतीं साधारणतः
किसी तत्सम तो क्या,तद्भव शब्द को भी

चिड़िया जीमती है मेरी कविता-पंक्ति में थोड़ा-सा सम्मान
और चीन्ह ली जाती है
पंडितों की पाँत में घुस आए अन्त्यज की तरह

चिड़िया भरती है कविता में निसर्ग का रूप
चिड़िया भरती है कविता में निसर्ग का स्वर
अनपढ़ चिड़िया ने कदाचित् बुद्धिमत्तापूर्वक
नहीं बनाई चहचहाहट की स्वरलिपि की कोई कॉपी
और मनुष्य की शास्त्रकामिता के
मारक शस्त्र से बच निकली कुशलतापूर्वक
निसर्ग-प्रेम में खिसियाया हुआ मनुष्य
कह उठा उस स्वरलिपि को सुनकर--
'अच्छा है...अच्छा है...अति सुंदर....'
दबे स्वर में बुदबुदाया--'शोर है लेकिन'

चिड़िया ने नहीं सुनी 'नरो वा कुंजरो वा' की भाँति
कही गई यह अंतिम पंक्ति
क्योंकि उसकी सारी उद्यमिता लगी थी
उस ऊर्ध्वलोक की ओर
जो केवल चिड़िया का था निसर्गतः
पर संकर बीज की तरह वपित हुआ
मनुष्य की चेतना में

मनुष्य ने खेली थोड़ी-सी चालाकी
चिड़िया को बचाखुचा अन्न या क्षुद्रान्न डालकर
तो चिड़िया ने भी खेली थोड़ी-सी मासूमियत
जो उसकी थी नैसर्गिक कला,
उसे कृत्रिम आकांक्षा की तरह रख दिया
मनुष्य के स्वप्न की तिजोरी में

बार-बार चिड़िया पढ़ा रही थी
मनुष्य को दोनों पक्षों को पूरी एकाग्रता से एक समान साधने का पाठ

मनुष्य की उड्डयन-आकांक्षा के लिए
क्योंकि सहज नहीं था चिड़िया को गुरु मानना,
सो उसकी सज्ञ मनुष्यता
बार-बार लेती रही पक्षधरता के बौद्धिक आलाप
चिड़िया बेचारी क्या जाने
कि पक्षधरता किस चिड़िया का नाम है
जानती है तो बस इतना
कि वह धरती है दोनों पक्षों को समान बलपूर्वक
उन्हें हवा के विरुद्ध जाने के समान अवसर देती हुई
यों चिड़िया इतनी चालाक नहीं थी कि सोचती
कि वह 'पयोधरा' होती तो
समान भार से व्यग्रतापूर्वक झुकते उसके दोनों स्तन
उसे मनोहरांगी या गॉर्जियस बनाते और इसका वह विविध लौकिक लाभों के लिए करती भरपूर उपयोग

चिड़िया ऊहापोह की गठरी को सिर पर लादती
तो डोलते रहते उसके दोनों पंख
विनत भी होना और उठते हुए भी दीखना--
चिड़िया के जीवनदर्शन में नहीं है यह दोहरापन

चिड़िया हवा या आकाश या जमीन को
मापने और अपने अधिकार में लेने का इंचटेप
पंजों में उलझाए हुए नहीं उड़ती
सो,उड़ते हुए रहती है हर निसर्ग-विरुद्ध पाखंड से
उपरत और हल्की
चिड़िया नाप लेती है उन लोकों को
जहाँ तक हमारी दृष्टि भी नहीं जाती,
न ही कल्पना

चिड़िया भले ही डाल दे
मनुष्य के सिर पर अपनी बीट
पर भाषाशास्त्रियों के भाषायी खटकर्म के आगे
उसकी दाल नहीं गलती 

आलेख के लिये सादर आभार  आद.  पंकज परिमल जी

Achary Pratap

समालोचक , संपादक तथा पत्रकार प्रबंध निदेशक अक्षरवाणी साप्ताहिक संस्कृत समाचार पत्र

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