शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

मित्र श्रीमान्नारायणाचार्य "विराट" जी के द्वारा की गई समीक्षा - ( संवेदनाओं का मौन पुकार है -- "आका बदल रहे हैं)

संवेदनाओं का मौन पुकार है --

"आका बदल रहे हैं "

 

साहित्य को जीवन की आलोचना कहा गया है, इसमें कवि अपने जीवन में जिये गये हर क्षण, भोगे गये सुखों-दुखों की अनुभवात्मक गठरी को पाठकों के समक्ष खोलकर अनुभूतियों की भाव-व्यंजन मस्तक की थाली में परोसता रहता है। बहुधा साहित्यकार अपनी ही बात को विभिन्न पात्रों व बिंबों के माध्यम से कहलवाते हैं। प्रायः कवि ही स्वयं को प्रतीक बना लेता है और समग्र जीवन का विश्लेषण करता चलता है । ऐसा कहा जाता है कि,"कवि अरु जोगी एक समाना"  अर्थात साहित्यकार और सन्यासी दोनों संसार को हमेशा परख कर बुराइयों पर कटाक्ष करने के लिए अग्रसर हो जाते हैं और उसका उपचार खोजने में अपने जीवन को समर्पित कर देते हैं ।  कवि अपने मन में उठी उलझनों को संघर्षों की  भावाभिव्यक्ति के लिए  विधा रूपी पंख पहनकर विशाल आकाश में उन्मत्त होकर उड़ान भरता है और अपने आप में खोकर संसार हित सोचता रहता है । साहित्य की अनेक विधाएं है- छंद , गीत, मुक्तक, ग़ज़ल, नवगीत , समीक्षा , कहानी,नाटक, आत्मकथा व संस्मरण आदि ।

                   वर्ष1950  के पूर्व तक  ग़ज़ल एक मनोरंजन का साधन बनी हुई थी। वर्ष 1960 के पश्चात ग़ज़ल जीवन की अभिव्यक्ति एवं रसास्वादन का माध्यम बनीं , तब से ग़ज़ल नगर से गांव - गांव तक जनतंत्रीकरण होगया।  आधुनिक हिन्दी की ग़ज़ल विधा ,विशेषकर उसके भाषा,पक्ष,बिंब-प्रतीक के  संबंध में ज्ञान का विस्तार हुआ है । इसी समय भारत में स्वतंत्र चेतना के उदय का युग आरंभ हुआ है ,आज हिन्दी ग़ज़ल   वास्तविक जनजीवन के बीच आकर खडी हो गई है।

               हिन्दी ग़ज़ल की बात आती है तो दुष्यंत जी को स्मरण किये बिना हम आगे बढ़ नही सकते क्योंकि इन्होने ग़ज़ल के सांचे में साकार होने वाले श्रृंगारिक मनोरंजन साधन को, सामाजिक उपचार का माध्यम बनाया। उनके पथ पर हिन्दी ग़ज़लों की परंपरा को अपने मन की न्यास पर सुशोभित किए हुए कवि व्यक्तित्व मनीषी विजय कुमार तिवारी जी है।वह इस परंपरा को भावी पीढ़ी हेतु मार्ग प्रशस्त करने का दायित्व अपने कंधों पर लिया है।

             गुजरात के लब्ध प्रतिष्ठित कवि आलोचक , समीक्षक ग़ज़लकार श्री विजय कुमार जी के द्वारा कई पुस्तक प्रकाशित हुए हैं । उनमें साहित्य साहित्यकार और वैश्विक धरोहर ", "निर्झर" ,"फल खाए शजर","आंका बदल रहे हैं "आदि ग़ज़ल संग्रहों ने तिवारी जी को अंतर्राष्ट्रीय कवि के रूप में  यश प्रतिष्ठा दिलायी है । साहित्यकार विजय तिवारी जी द्वारा रचित "आका बदल रहे हैं" ग़ज़ल संग्रह में आधुनिक ग़ज़ल विधा के परंपरागत अनुशासन का पूर्णतः निर्वाहन हुआ और वस्तु बिंब - प्रतीकों में नवीनतम संस्करण करने का प्रबल प्रयास पाठकों को आकर्षित करता है । इनकी लेखनी से विविध विषयों पर अनेक ग़ज़ल है जिनमें - सामाजिक सरोकार, आध्यात्म ,श्रृंगार ,नीतिपरक ,राष्ट्रीय चेतना,सांद्र अनुभूतियाँ, विरल संवेदनाएं ,मानवीय मूल्य, राज्याधिकार ,युग की अंतर्ध्वनि ,जागरुक पीढ़ी के लिए आविष्कृत हुईं हैं । हर ग़ज़ल एक नया संदेश लेकर आती है । शायर ने शीघ्रता से पन्नों को भरने का तनिक प्रयास भी इस संग्रह में नही दिखाई  पड़ता । इस ग़ज़ल संग्रह से गुजरते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि ये गजलें मन और प्राण से लिखी गई है और भावों की गहराई लाजवाब है । प्रत्येक ग़ज़ल में बहुलतम फ़ारसी शब्दों का प्रयोग न करते हुए ग्रामीण आम व्यक्ति के दिल तक पहुंचने के लिए सुगम एवं मानक हिन्दी भाषा को बड़े  रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है । यह इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है कि कवि की सृजनशीलता का कैनवास विस्तृत है, वह सदा विश्व कल्याण की कामना लिए अपनी लेखनी को चलाता है ।

               मैं कहता हूँ , "संवेदनाओं की मौन पुकार ही ग़ज़ल है"। कवि का हृदय संवेदनशील होता है और उसका जगत व्यवहार पर निक्षेप विशिष्ट होता है । कवि /शायर अंतर्निहित अनेक भीषण झंझावतों को झेलता है और उससे ऊपर उठने की आदर्शवादिता अपनी लेखनी के माध्यम से दिखाता है ,  यह ग़ज़ल संग्रह उसका जीवित प्रमाण है । विनय तिवारी जी के ग़ज़लों ने अपने अछूते बिंब  विधानों एवं प्रस्फुट भाषा शैली से  ग़ज़ल के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट छवि बना ली है । उनके भीतर संवेदना की अक्षय सरिता निरंतर बहती रहती है व्यवस्था के भीतर घाव की गहराइयों को तक जाकर विश्लेषण करना इस गज़लकार का लक्षण है । राजतंत्र पर प्रश्न संधान करने की हिम्मत एवं साहस कलम में होना चाहिए जो श्रीमान विजय तिवारी में है । उषा काल में हिलोरती सूर्य किरणों की शीर्षक पृष्ठ नव उमंग भरने वाली है । विविध विषयों को स्पर्श करती हुई 89 गजलों से समीकृत ग़ज़ल संग्रह "आका बदल रहे हैं "  हिन्दी साहित्य अकादमी (गुजरात) से  पुरस्कृत है। "हे! माँ मुझे वरदान दे " संग्रह की पहली ग़ज़ल से लेकर "सीखकर के हाय ये आदाब बेचने लगे" शीर्षक की अंतिम ग़ज़ल तक अद्भुत समागम युक्त रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं।

          इसमें कवि मात्र अपने बारे में वर न मांगकर संसार के ज़रूरतमंदों के लिए अपनी झोली बिछाता है -

 हे! माँ मुझे वरदान दे, जग में अपरिमित ज्ञान दे,

दुःख दर्द सबके हर सकूँ, ऐसा अमर एक गान दे।

          कहकर माँ भगवती से अज्ञान तिमिर को हरने के लिए प्रार्थना करता है ।

पश्चिमी सभ्यता तेज गति से फैलती जा रही है युवा उसके मोह में अपनी सभ्यता को निम्नतर समझना कवि को आक्रोश दिलाता है-

पश्चिम की सभ्यता से विज्ञान सीख कर के , मानस की कालिमा को पूनम बता रही है।

नकाबपोशी मनुष्यों की दोहरे चरित्र पर प्रकाश डालते हुए कहते है-

"एक ना इक दिन तो पर्दा ये उठेगा ही जनाब",

"खाल में यूँ शेर की गीदड़ छुपेगा कब तलक"/

"पहचान आदमी की नही कर सकेंगे आप"

"चेहरा हरेक शख्स का अब है नकाब में".

युवा पीढी को आगे आकर देश का दायित्व संभालने के लिए सलाह देते हुए विजय तिवारी जी कहते है-

"बागडोर अब देश की तू थाम ले ऐ नौजवाँ",

"बूढ़ी उंगली को तू पलेगा कब तलक "/

"नहीं है आग सीने में न आंखों में कोई सपना",

"शहर भर में कोई भी शख्स क्यों जिंदा नही लगता /

"गमों का घोर अंधेरा मिटाया कहते थे ,

"कहाँ गई है वो  क्रांति मशाल पूछेंगे".

ऐसा कहा जाता है कि कवि स्वान्तः सुखाय के लिए लिखते है परंतु आधुनिक कवि या शायर जग की पीडा को जानबूझकर आवाहन कर लेता है और संसारिक उलझनों से निपटते हुए  आनंद मग्न में रहता है ।

"इस जिंदगी में सबसे बडा सुख कलम का है",

"अब तो यही विजय का है आधार इन दिनों"/

"लगेगा मन यहाँ पे कैसे अपना",

"ग़ज़ल गीतों की महफिल नही है "/

"तुमको नही मालूम है तुम हो अभी नादान" ,

"जन्नत से भी ज्यादा मजा है".

समाज के विद्रूपताओं पर कवि अपने व्यंग बाण चलाते है-

"इस आधुनिक जहान में एटम की बात कर",

"रोटी की औ मकान की चर्चा फिजूल है"/

"कातिल बना है मुन्सिफ तो फैसला क्या होगा",

"तुहमत लगा के मुझ पर मेरा बयान लेंगे"/

"विश्व शांति के नये हल का असर भी देखिए",

"हर तरफ होने लगी है जंग की तैयारियां"/

 ये नई तहजीब तो देखो सादगी को खागाई ",

"खो गई है अब शहर में गाँव की अठखेलियां".

नेताओं पर अछूक प्रहार करने हेतु नये नये प्रतीकों के साथ आते है-

"बडे जहरीले सांपों को पकड़ लेते है फिर"

"इशारों पर उन्ही के नाचते सफेरे हैं"

 इस ग़ज़ल संग्रह में विप्रलंभ वियोग श्रृंगार के कई प्रतीक मिलते हैं  जो जीवित चित्रण किया है वह पाठक के हृदय को गहराइयों तक झकझोर कर रख देता है -

  "छल कपट स्वार्थ के जंगल में अब",

"प्यार का तो कोई रास्ता ही नही" /

"जिसके जीवन में सबकुछ हमी थे कभी",

"आज कल वो हमें जानता ही नहीं"/

"तुमको दवा ए दर्द मिला खुश रहो मगर,"

"हम तो तडप रहे हैं रहा आज बेहिसाब"/

 "मैं घाव अपने दिल के तुमको दिखाऊँ कैसे",

"तुमने ही तो दिये थे तुमको बताऊँ कैसे"/

"बाते वो मीठी-मीठी सौगात ले के मिलना”, "विश्वास का बहुत ही गहरा सा जाल है ये"/

"प्यार के नाम पर प्यार से",

"याद देते है अब तो जहर"/

"हजारों जख्म दिल में पालता हूँ",

"मगर हाँ आँख मेरी नम नही है "/

नुमाईश मत लगा जन्मों की अपनी,

यहाँ पर कोई भी आदिल नही है ".   

 एक ग़ज़ल की एक शेर में आज की एकल परिवार की मानसिकता एवं बढती हुई वृद्धाश्रमों की संख्या ग़ज़कार को चिंतित करती है  तब वह कहता है -

"जाता नही है आज कोई राम अब वनवास

जाते हैं वृद्धाश्रम में दशरथ कैकयी के साथ"

जब तक जीवित थे तब तक कोई पूछने वाले होते ,सिधारने के बाद शोकाकुल होने से क्या मतलब यह प्रश्न अपने ग़ज़ल में कहते हैं -

"मरने पे जिसके कर रहे हैं स्वर्ग की दुआ,

जीते जी उसको चैन से रहने नहीं दिया".

सामाजिक मूल्य पतन होते जा रहे हैं, विश्वस की हीनता पराकाष्ठा तक पहुँच गयी है आज संसार में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से धोखा खाते हुए अपेक्षाओं का हरण होता दिखई दे रहा है इसका ही उल्लेख करते हुए कहते है -

"धोखे मिले हैं राह में हर इक कदम पे खार",

"होता यही है नेक नीयत आदमी के साथ"/

"चारों तरफ है कैक्टस कांटे बबूल ही",

"उस बागबाँ ने फूल इक खिलने नही दिया"/

"हर तरफ यह बवाल कैसा है,"

"अब न पूछो कि हाल कैसा है" ।

किसी भी देश या समाज की मूलभूत शक्ति मानसिक स्तर पर रुग्ण एवं शक्तिहीन होगी तो निश्चित रूप से वह  समाज भी बाह्य रुग्णता का शिकार हो जाएगा इसलिए युवा पीढी को जागरुक करता है पथ पशस्त करने का भरपूर प्रयास अपनी अलग-अलग ग़ज़लों के माध्यम से कवि उन्हें समझाता है और आगे बढने के लिए  प्रेरित करता है  -

"खुद चुना है सफर ये अपना तो, अश्क कैसे मलाल कैसा है",

"हारना मत तू कभी हिम्मत जला दीपक, तिलमिलिएगा अंधेरा खत्म होगी शब"/

परिश्रम के बिना कुछ नही पाने का संदेश छोटे बहर में विजय तिवारी जी बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत करते है-

"मक्खन कैसे पायेगा ,दही तो मथता नहीं" /

वृन्द जी की "करत करत अभ्यास ते जड़ मति होत सुजान "पंक्ति को विस्तृत करते हुए कहते है-

 "है खोज मोती की तभी तो, हर बार गोता मारता हूँ "/

"तू छोड़ दे जमाने के पीछे पीछे चलना, कोशिश ये कर जमाने से आगे जाऊं कैसे"/

"रात में तो खूब सोये तान कर ख्वाबों की चादर",

"और दिन में वो हकीकत के सितारे ढूंढता है"/

"यहाँ रुकने से कुछ हासिल नहीं है",

"ज़रा सी छांव है मंजिल नहीं है"।

कहकर आगे बढने लिए प्रेरित करते हैं।

राजनीतिक चालाकियों ,प्रशासनिक मक्कारियों एवं सामाजिक अन्यायों से आम आदमी सदैव झूझता रहा उन्हें आजादी एवं गुलाम में कोई अंतर दिखाई नही पडता ।अतःएव  कवि /शायर हमेशा भीड़ का प्रतिनिधि होकर सिंहासन से सवाल करता है-

"आजाद होगये हैं इस भ्रम में पल रहे है,"

"हम तो गुलाम ही है आका बदल रहे हैं"/

"वे तो पराये थे पर ये रहनुमा है अपने",

"ग़ैरों से ज़ियादा जो हम को छल रहे हैं"।

प्रकृति व पर्यावरण के प्रति आस्था रखता व्यंग बाण चलाते है-

 "जंगल पहाड और नदी सब है लापता",

"चारों तरफ बने हैं मकाँ आज से बेहिसाब" /

"ये दर्द का हिमालय देखो पिघल रहा है",

"सैलाब आ गया प्रदूषण निगल रहा है" ।

ग़ज़लकार की तीर अलग-अलग चित्रणों को भेद कर उपदेशात्मक लगती हैं -

"भंवरे ये वो नही है सौंदर्य के उपासक,"

"कलियों को अब संभालो मौसम बदल रहा है"/

किसी कवि ने कहा "फीकी पै नीकी लगे, कहिये समय विचारि" इसी को आगे बढाते हुए  शायर कहता है कि समय के महत्व को ध्यान में रखकर बातें करना है क्योंकि समय का पुनरागमन नही होता -

"समय पर ही मजा देती है बातें चूक मत जाना",

"उसी अंदाज से फिर बात दुहराई नही जाती"।

कवि हमेशा सीमावर्ती हालात पर नजर रखता है और नेताओं की स्वार्थ -छल -कपट एवं कुटिल लब्धि के कारण आज देश बेचने की स्पर्धा  बनी है उन पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं -

  "प्यार से समझाने की भी खत्म सीमाएं हुई",

 "मानजा वरना हथियार थम जाएगा"।

और

 "देश की खातिर गवां दी जान लेकिन राहबर

उन शहीदों के भी घाव बेचने लगे" ।

        ग़ज़ल संग्रह "आका बदल रहे हैं " में आरंभ से अंतिम ग़ज़ल तक गहन संवेदनशीलता, मानवीय मूल्य,संघर्षमय जीवन के प्रति आक्रोश ,देश के प्रति अपार प्रेम आदि सामाजिक सरोकार एवं भावनाएं ग़ज़ल संग्रह को नितांत संतुलित बनाती हैं। गज़लकार विजय तिवारी जी के पास भाषा तरल और सरल पर पैनी है और मारक भी है ।वह बिना ठाट-बाट के अपनी रचना लोंगों के जुबान पर चढ़ जाता है यह इनकी सबसे बडी विशेषता है । "आका बदल रहे हैं " गजल संग्रह में प्रकृति है ,प्रेम है, दर्शन है ,भक्ति है और समाज के कोणों में दबी छिपी समस्याएं जो कवि की बारीक नजर से ओझल नही हो पायी हैं। रचना ,रचनाकार और विषय समन्वय में कवि /गज़लकार का व्यक्तित्व एक महती भूमिका का निर्वाह करता है । विजय तिवारी जी के गजलों की हर शेर अपनी भूमिका को लेकर समृद्ध है । एक श्रेष्ठ रचनाकार का यही लक्षण होता है कि रचनाकार के अलावा रचना ही सबकुछ बोल सके । सद् साहित्य सृजन अपने आप में ही एक पवित्र कार्य है और कवि ने यह पवित्र कार्य जन कल्याणार्थ करने का प्रण लिया है ,तो वह निश्चय ही इसमें सफल हुआ है । गजलकार विजय तिवारी जी को मेरी ओर से बहुत बहुत बधाई ।

 

समीक्षक -

श्रीमान्नारायणाचार्य "विराट"

निजामाबाद ,तेलंगाना राज्य

9701806936

798994 6218

पता-   3- 10-355/f/1

Rotary nagar, nyalkal road 

Nizamabad,-503001

Telangana state

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