दोहा-द्वादशी

 वसंत-ऋतु- वसंतोत्सव

काक-कोकिला एक सम, वर्ण रूप सब एक।
ऋतु बसंत है खोलती , भेद वर्ण के नेक।।०१।।
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हरियाली अब छा रही , कर पतझड़ का अंत।
कहता यही प्रताप अब , आया सुखद बसंत।।०२।।
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बाग बगीचे में भ्रमर , दिखे कुसुम के संग।
आलिंगन का दृश्य यह , मन में छेड़े जंग।।०३।।
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ईश्वर के वरदान सम , ऋतु वसंत है मीत।
नव पल्लव नव पुष्प सब, नव कोकिल के गीत।।०४।।
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तरुवर नवल धवल वसन , क्षिति कर नव उपकार।
वन-उपवन धर कुसुम नव , शुचि जग भर उपहार।।०५।।
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धवल नवल तरुवर वसन , वन-उपवन नव कुसुम।
प्रकृति कमल नृप सम जगत , ऋतुपति सु-मुकुल सुषुम।।०६।।
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वसुधा वसित वसन किये , नवल धवल परिधान।
ऋतुपति का शुभ-आगमान , हर्षित जग जन जान।।०७।।
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पल्लव पुष्प मुकुल सहित , नवल हरित परिधान।
धारण कर धरणी करे , ऋतुपति का सम्मान।।०८।।
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मन मेरा मधुकर हुआ , जब से लगा वसंत।
गीत ग़ज़ल अरु छंद सब , तुमसे ही पद-अंत।।०९।।
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बूढ़ों में भी चढ़ चलें , आप जवानी चाल।
ऋतुपति का क्या खेल है , कहूँ आज क्या हाल??०४।।
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देख वसंती चाल मैं , कर जाता हूँ भूल।
कब किसको कैसे कहाँ , कहूँ वचन के शूल।।०१०।।
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पीली सरसों देखकर , मन में उठे उमंग।
मत प्रताप प्रिय प्रेयसी , डाल रंग में भंग।।११।।
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कूक रही है बाग पर , कोकिल मीठे गीत।
मनो छाया है यहाँ , ऋतु वसंत अब मीत।।१२।।
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आचार्य प्रताप


 

Achary Pratap

समालोचक , संपादक तथा पत्रकार प्रबंध निदेशक अक्षरवाणी साप्ताहिक संस्कृत समाचार पत्र

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