वसंत-ऋतु- वसंतोत्सव
काक-कोकिला एक सम, वर्ण
रूप सब एक।
ऋतु बसंत है खोलती , भेद वर्ण के
नेक।।०१।।
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हरियाली अब छा रही , कर पतझड़ का
अंत।
कहता यही प्रताप अब , आया सुखद
बसंत।।०२।।
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बाग बगीचे में भ्रमर , दिखे कुसुम
के संग।
आलिंगन का दृश्य यह , मन में
छेड़े जंग।।०३।।
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ईश्वर के वरदान सम , ऋतु वसंत है
मीत।
नव पल्लव नव पुष्प सब, नव कोकिल के
गीत।।०४।।
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तरुवर नवल धवल वसन , क्षिति कर
नव उपकार।
वन-उपवन धर कुसुम नव , शुचि जग भर
उपहार।।०५।।
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धवल नवल तरुवर वसन , वन-उपवन नव
कुसुम।
प्रकृति कमल नृप सम जगत , ऋतुपति
सु-मुकुल सुषुम।।०६।।
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वसुधा वसित वसन किये , नवल धवल
परिधान।
ऋतुपति का शुभ-आगमान , हर्षित जग
जन जान।।०७।।
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पल्लव पुष्प मुकुल सहित , नवल हरित
परिधान।
धारण कर धरणी करे , ऋतुपति का
सम्मान।।०८।।
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मन मेरा मधुकर हुआ , जब से लगा
वसंत।
गीत ग़ज़ल अरु छंद सब , तुमसे ही
पद-अंत।।०९।।
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बूढ़ों में भी चढ़ चलें , आप जवानी
चाल।
ऋतुपति का क्या खेल है , कहूँ आज
क्या हाल??०४।।
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देख वसंती चाल मैं , कर जाता हूँ
भूल।
कब किसको कैसे कहाँ , कहूँ वचन के
शूल।।०१०।।
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पीली सरसों देखकर , मन में उठे
उमंग।
मत प्रताप प्रिय प्रेयसी , डाल रंग में
भंग।।११।।
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कूक रही है बाग पर , कोकिल मीठे
गीत।
मनो छाया है यहाँ , ऋतु वसंत अब
मीत।।१२।।
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आचार्य प्रताप
ओहो अद्भूत
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