Dhadak2 Review :: धड़क-२ की समीक्षा

जाति, सिनेमा और समाज : धड़क-२ की समीक्षा


भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था की जकड़न और उसके कारण उत्पन्न होने वाली सामाजिक त्रासदी सदियों से चर्चा का विषय रही है। साहित्य, लोककथा, रंगमंच और सिनेमा—सभी ने इस यथार्थ को समय-समय पर अपने ढंग से चित्रित किया है। इसी क्रम में तमिल निर्देशक पा. रंजीत की फिल्म परियेरुम पेरुमाल एक मील का पत्थर कही जा सकती है। यह फिल्म एक साधारण छात्र के माध्यम से जातिगत भेदभाव की गहराई को उद्घाटित करती है। इसी कृति का हिंदी रूपांतरण धड़क और हाल ही में आई धड़क-२ है।

जब मैंने धड़क-२ देखने का निश्चय किया, तो मन में उत्सुकता थी कि शायद यह नया रूपांतरण तमिल मूलकथा से भिन्न दृष्टि प्रस्तुत करेगा। किंतु प्रारम्भिक कुछ दृश्य देखकर ही स्पष्ट हो गया कि यह तो उसी कृति की छाया है। आधे चलचित्र तक पहुँचते ही एक गहरी निराशा ने घेर लिया। तमिल संस्करण पहले देख लेने के कारण मुझे यह पुनःभोग अनावश्यक-सा प्रतीत हुआ, परंतु साथ ही एक बार फिर जातिगत हिंसा की भयावहता मन को विचलित करने लगी।

फिल्म का नायक नीलेश निचली जाति से आने वाला एक युवक है, जो विधि महाविद्यालय में आरक्षण के आधार पर प्रवेश पाता है। यह उसके जीवन का स्वर्णिम क्षण होना चाहिए था, परंतु प्रवेश प्रक्रिया के प्रथम प्रश्न ही उसे उसकी जातिगत पहचान की ओर धकेल देते हैं—
तुम किस जाति से आए हो? क्या आरक्षण के सहारे प्रवेश मिला है? क्या अध्ययन में तल्लीन रहोगे या समूह बनाकर अनुशासन भंग करोगे?
यह प्रश्न मात्र औपचारिक नहीं, बल्कि उस सामाजिक पूर्वाग्रह का प्रतीक हैं, जो जन्म से मनुष्य पर थोप दिए जाते हैं।

नीलेश का जीवन तभी से विषाद की ओर मुड़ जाता है। कॉलेज की पढ़ाई के बीच उसे एक उच्च जाति की कन्या निधि से प्रेम हो जाता है। प्रेम, जो सामान्यतः जीवन को आनंद और आशा से भर देता है, यहाँ घोर त्रासदी का सूत्रपात कर देता है। निधि का साहसिक निर्णय—अपने प्रेमी को पिता से मिलवाना—नीलेश के लिए एक अभिशाप सिद्ध होता है। निधि के कुटुंबजन उसके साथ अमानुषिक व्यवहार करते हैं, उसे निर्दयता से पीटते हैं, मानो उसके प्रेम ने किसी सामाजिक अपराध को जन्म दिया हो।

यहीं पर फिल्म की करुणा और तीक्ष्ण यथार्थवाद मुखर होता है। जाति के नाम पर की जाने वाली यह हिंसा किसी साधारण अपराध से भी अधिक वीभत्स प्रतीत होती है। यह हमें सोचने पर विवश कर देती है कि क्या आज के आधुनिक भारत में भी जाति जैसी प्रथा अबाध रूप से जीवित है?

मेरे लिए यह अनुभव अत्यंत पीड़ादायक था। तमिल संस्करण पहले ही देख चुका था, इसलिए अब और अधिक सहन नहीं कर पाया और चलचित्र अधूरा छोड़कर बाहर निकल आया। किंतु बाहर निकलने पर भी पीड़ा कम न हुई। समाज के गलियारों में पसरी जातिगत विषमता, निर्धनता और शोषण की स्मृतियाँ मन को कुरेदती रहीं।

समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखा जाए तो जाति-व्यवस्था ने भारतीय समाज में गहरे खांचे बना दिए हैं। ऊँच और नीच की यह रेखा केवल अवसरों को ही नहीं, मनुष्य की आत्मा को भी विभाजित करती है। निर्धन और वंचित वर्ग न केवल जातिगत ऊँच-नीच से पीड़ित हैं, बल्कि आर्थिक विषमता के कारण भी दरिद्रता और अपमान का बोझ ढो रहे हैं। इन विषमताओं को समाप्त करना सामान्य मनुष्य के सामर्थ्य से परे प्रतीत होता है।

फिल्म ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि क्या ऐसे शोषण पर आधारित सिनेमा वास्तव में समाज को बदल पाता है? विडम्बना यह है कि जब इन फिल्मों को पुरस्कारों से नवाज़ा जाता है, और दर्शक खड़े होकर तालियाँ बजाते हैं, तो यह दृश्य मुझे व्यंग्यपूर्ण प्रतीत होता है। ऐसा लगता है मानो हम उत्पीड़ितों की वेदना को भोगवस्तु बनाकर उसका उत्सव मना रहे हों।

मुझे धड़क का पहला संस्करण भी स्मरण हो आया। यह जान्हवी कपूर की पहली फिल्म थी, ईशान खट्टर उसके नायक थे, और फिल्म ने करोड़ों का व्यापार किया। असंख्य पुरस्कारों से उसे अलंकृत किया गया। परंतु मूल प्रश्न यह है कि क्या जातिवाद की पीड़ा सचमुच दर्शकों के हृदय तक पहुँची? या यह केवल चर्चाओं और “फैशन” का विषय भर रह गया?

आजकल जातिवाद पर चर्चा करना बहुतों के लिए एक बौद्धिक फैशन बन चुका है। सेमिनार, मंच, सोशल मीडिया—हर जगह यह शब्द गूंजता है। किंतु यदि सच में समाज आत्ममंथन करता, तो शायद यह शब्द कब का लुप्त हो चुका होता। मात्र भाषणों और पुरस्कारों से यह समस्या समाप्त होने वाली नहीं।

आधे चलचित्र के बाद ही मैंने निर्देशक रंजीत को मन ही मन नमन किया। उनके साहस और दृष्टि ने इस विषय को जिस नंगे यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया, वह सराहनीय है। यही कारण है कि यह फिल्म हिंदी में भी सफल  हो रही है और नेटफ्लिक्स पर शीर्ष स्थान पर पहुँची।

कुल मिलाकर, धड़क-२ केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि हमारे समाज का दर्पण है, जिसमें जातिगत विषमता की कुरूप छवि प्रतिबिंबित होती है। यह हमें झकझोरती है, असहज करती है, और सोचने को बाध्य करती है कि हम किस ओर बढ़ रहे हैं।

-आचार्य प्रताप
Achary Pratap

समालोचक , संपादक तथा पत्रकार प्रबंध निदेशक अक्षरवाणी साप्ताहिक संस्कृत समाचार पत्र

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