कर्म - अकर्म, मर्म - कुमर्म,
सिनेमा का ज्ञान कराए समीक्षा।
अरुचि - भाव मिटाती सदा,
कला-दृष्टि पथ दिखलाए समीक्षा।
भ्रम, द्वंद्व, विकार के सागर से,
चेतना को पार लगाए समीक्षा।
तन को मनोरंजन दे सकती फ़िल्में,
मन का विवेक जगाए समीक्षा।
धन के मद में चूर हो, भूल धर्म-व्यवहार।
लकी बना दुर्भाग्य से, खो नैतिक आधार॥
पर्दे पर जो दिख रहा, वही समय का सार।
भ्रष्टाचारी वीर हैं, करना सदा विचार॥
वर्तमान समय में जब सिनेमा समाज का दर्पण माना जाता है, तब 'लक्की भास्कर' जैसी फिल्में गंभीर चिंता का विषय बनती हैं। यह फिल्म न केवल मनोरंजन का माध्यम है, बल्कि एक ऐसा सामाजिक दस्तावेज है, जो हमारी नैतिक संवेदनाओं को चुनौती देता है।
सर्वप्रथम, फिल्म के कथानक पर दृष्टिपात करें तो यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो भ्रष्टाचार को वैज्ञानिक पद्धति से अपनाता है। चौंकाने वाली बात यह है कि फिल्म इस कृत्य को न केवल सामान्य दर्शाती है, बल्कि इसे एक 'कौशल' के रूप में प्रस्तुत करती है। परिवार के प्रति प्रेम का आवरण ओढ़कर, अवैध कार्यों को वैधता प्रदान करने का प्रयास किया गया है।
फिल्म की तकनीकी श्रेष्ठता और कलात्मक प्रस्तुति निःसंदेह प्रशंसनीय है, परंतु इसका सामाजिक संदेश अत्यंत विचलित करने वाला है। नायक का चरित्र-चित्रण एक ऐसे व्यक्ति का है, जो भ्रष्टाचार को एक कला में परिवर्तित कर देता है। वह दर्शकों को यह संदेश देता है कि यदि आप चतुराई से काम लें, तो कानून की पकड़ से बच सकते हैं और समाज में प्रतिष्ठा भी पा सकते हैं।
मलयालम सिनेमा ने एक बार फिर साबित किया है कि वह समसामयिक विषयों पर बेहतरीन फिल्में बनाने में माहिर है। 'लक्की भास्कर' हर्षद मेहता के प्रसिद्ध शेयर बाजार घोटाले से प्रेरित एक मजबूत कथानक वाली फिल्म है। दिलकर सलमान ने मुख्य भूमिका में अपनी बेहतरीन अभिनय क्षमता का परिचय दिया है।
फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसकी कहानी और शोध है। निर्देशक ने 1992 के शेयर बाजार घोटाले की जटिलताओं को सरल और रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है। वित्तीय धोखाधड़ी जैसे तकनीकी विषय को आम दर्शक की समझ में आने वाले तरीके से दिखाया गया है।
दिलकर सलमान का अभिनय फिल्म का मुख्य आकर्षण है। उन्होंने एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति के चरित्र को जीवंत किया है, जो सफलता के लिए नैतिक सीमाओं को लांघ जाता है। उनके चरित्र का विकास धीरे-धीरे होता है, जो दर्शकों को उनके साथ जोड़े रखता है।
फिल्म की तकनीकी पक्ष भी उत्कृष्ट है। 1990 के दशक के मुंबई को पुनर्जीवित करने में प्रोडक्शन डिजाइन सफल रहा है। संगीत और पार्श्व संगीत कहानी के मूड को बखूबी प्रस्तुत करते हैं।
सहायक कलाकारों का चयन और उनका अभिनय भी सराहनीय है। खासकर शेयर बाजार और वित्तीय जगत के प्रतिनिधियों के किरदार बेहद विश्वसनीय हैं।
केरल की फिल्म इंडस्ट्री ने एक बार फिर साबित किया है कि वह जटिल विषयों को भी कलात्मक रूप से प्रस्तुत कर सकती है। यह फिल्म वित्तीय अपराधों की दुनिया में झांकने का एक रोचक माध्यम बन गई है।
विशेष चिंता का विषय यह है कि फिल्म में नैतिक पतन को कोई दंड नहीं मिलता। पारंपरिक सिनेमा में जहाँ काव्यात्मक न्याय की परंपरा रही है, वहीं यह फिल्म उस मर्यादा को तोड़ती है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है, जो युवा पीढ़ी को गलत संदेश दे सकती है।
समाज में पहले से ही भ्रष्टाचार के प्रति बढ़ती सहनशीलता चिंताजनक है। चुनावी राजनीति में भ्रष्टाचार अब मुद्दा नहीं रह गया है। भ्रष्टाचार के आरोपी जेल से लौटकर 'हीरो' बन जाते हैं। ऐसे में 'लक्की भास्कर' जैसी फिल्में इस सामाजिक विकृति को और बल देती हैं।
निर्देशक का दृष्टिकोण भले ही मात्र मनोरंजन प्रदान करने का रहा हो, लेकिन फिल्म का प्रभाव इससे कहीं व्यापक है। यह एक ऐसी सोच को बढ़ावा देती है, जहाँ भ्रष्टाचार को एक 'स्मार्ट' विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई ऐसी फिल्में रही हैं, जिन्होंने समाज-विरोधी चरित्रों को दिखाया है। मणिरत्नम की 'नायकन' या विश्व सिनेमा की 'गॉडफादर' हो या 'अर्थ' (1982) - महेश भट्ट की यह फिल्म भी नैतिक मूल्यों और सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करती है, जहाँ अंत में मुख्य पात्र को अपने कर्मों का परिणाम भुगतना पड़ता है। 'वास्तव' (1999) - संजय दत्त अभिनीत यह फिल्म एक आम आदमी के अपराध की दुनिया में प्रवेश और उसके पतन की कहानी है। यहाँ भी अंततः काव्यात्मक न्याय की स्थापना होती है। 'कंपनी' (2002) - राम गोपाल वर्मा की यह फिल्म अंडरवर्ल्ड के यथार्थ को दिखाती है, लेकिन साथ ही अपराध के दुष्परिणामों को भी दर्शाती है।'गैंग्स ऑफ वासेपुर' (2012) - यह फिल्म भले ही अपराध जगत को दिखाती है, लेकिन अंत में सभी पात्रों को उनके कर्मों का फल मिलता है। 'दृश्यम' (2015) - यह फिल्म भले ही नायक को कानून से बचते हुए दिखाती है, लेकिन यह परिस्थितियों से मजबूर एक सामान्य व्यक्ति की कहानी है, न कि भ्रष्टाचार की
ऐसी फिल्में इसका उदाहरण हैं। लेकिन इन फिल्मों ने अपराध के परिणामों को भी दिखाया। 'लक्की भास्कर' इस परंपरा को तोड़ती है और एक खतरनाक मिसाल कायम करती है।
यह एक गंभीर प्रश्न खड़ा करती है कि क्या हमारा सिनेमा अब नैतिक मूल्यों से मुक्त हो चुका है? क्या मनोरंजन के नाम पर हम समाज को गलत दिशा में ले जा रहे हैं?
निष्कर्षतः, 'लक्की भास्कर' एक ऐसी फिल्म है, जो तकनीकी रूप से सक्षम होते हुए भी, सामाजिक जिम्मेदारी के मोर्चे पर विफल रहती है। यह फिल्म उद्योग और समाज दोनों के लिए एक चेतावनी है कि हमें अपने मूल्यों की रक्षा के प्रति सजग रहना होगा।
फिल्म महत्वपूर्ण सवाल उठाती है - सफलता की कीमत क्या है? पैसा और सत्ता की चाह में इंसान कहां तक जा सकता है? यह सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था पर एक कटाक्ष है।
'लक्की भास्कर' मलयालम सिनेमा की उस परंपरा को आगे बढ़ाती है, जो समाज के महत्वपूर्ण मुद्दों को कलात्मक रूप से प्रस्तुत करने में विश्वास रखती है।
यह फिल्म आने वाले समय में सिनेमा की दिशा को प्रभावित कर सकती है। अन्य फिल्मकार भी इसी प्रकार की कहानियों की ओर आकर्षित हो सकते हैं, जो समाज के लिए स्वस्थ नहीं होगा। इसलिए यह समय की मांग है कि दर्शक और फिल्म समीक्षक इस प्रवृत्ति पर गंभीरता से विचार करें।
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पाप-पुण्य, त्याग-भोग का,
चित्रण भ्रामक दिखाती हैं फिल्में।
लोभ-मोह की राह चलाकर,
समाज को भ्रष्ट बनाती हैं फिल्में।
सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का,
विवेक नहीं क्यों दिखाती हैं फिल्में।
भ्रष्टाचार को श्रेष्ठ बताकर,
युवा के मन भटकाती हैं फिल्में।
-आचार्य प्रताप
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