।।ॐ श्रीहरिः।।
।। जयति गीर्वाणभारती।।
।। जयति गीर्वाणभारती।।
'आराधिता' कृति के प्रणेता आदरणीय डॉ. वीरेंद्र प्रताप सिंह 'भ्रमर' जी को सर्व प्रथम हर्षानुभूति के साथ बधाई देता हूँ। आज जब साहित्य जगत में मुक्त छंद रचनाओं का बोलबाला है, हर पत्र-पत्रिका में मात्र ऐसी रचनाओं को ही स्थान मिलता है जिन्हें पढ़कर लगता है कि गद्य की पंक्तियाँ तोड़कर कविता का रूप देने का प्रयास किया गया है। हिन्दी साहित्य के लिए यह चिंता की बात है। हिंदी के पास प्रभूत मात्रा में छांदिक निधि है और जब इसका उपयोग कर कोई कवि काव्य साधना में प्रवृत्त होता है और अपनी रचनाओं को पुस्तकाकार रूप देता है तो कवि एवं पाठक दोनों के लिए एक सुखद बात होती है। कवि डॉ० भ्रमर जी एक ऐसे समृद्ध रचनाकार हैं जिन्होंने सनातनी छंदों को शब्दबद्ध कर 'आराधिता' नामक पुस्तक के माध्यम से लोगों तक हिंदी छंदों एवं अपने भावपुंज को पहुँचाने का सराहनीय प्रयास किया है।
डॉ० 'भ्रमर' जी ने देशप्रेम, राजनीति, श्रृंगार आदि विविध विषयों को अपने छंदों एवं गीतों का माध्यम बनाकर हिंदी साहित्य को समृद्धि प्रदान की है। भाव और भाषा की दृष्टि से समृद्ध यह पुस्तक निश्चित रूप से सुधी पाठकों तथा साहित्यकारों का ध्यान आकृष्ट कर न केवल समादृत होगी अपितु एक विशेष स्थान प्राप्त करने में भी सफल होगी।
डॉ० 'भ्रमर' जी ने देशप्रेम, राजनीति, श्रृंगार आदि विविध विषयों को अपने छंदों एवं गीतों का माध्यम बनाकर हिंदी साहित्य को समृद्धि प्रदान की है। भाव और भाषा की दृष्टि से समृद्ध यह पुस्तक निश्चित रूप से सुधी पाठकों तथा साहित्यकारों का ध्यान आकृष्ट कर न केवल समादृत होगी अपितु एक विशेष स्थान प्राप्त करने में भी सफल होगी।
वैसे तो डॉ० 'भ्रमर' नाम अपने आप में एक प्रतिष्ठित नाम है ,जिनको मैं श्रेष्ठ छंदकार , छंदगुरु के रूप में जानता हूँ , आपको मैं लगभग दो वर्षों से जानता हूँ मुखपोथी के माध्यम से पढ़ता आ रहा हूँ एक साहित्यिक समूह के माध्यम से हमारी पहचान हुई और दिल्ली में संपन्न हुए एक कार्यक्रम में दोनों उपस्थित हुए और हमारी भेंट हुई इसका संपूर्ण श्रेय मित्र 'प्रशान्त मिश्र मन' को जाता है।
फिर आपसे हुई भेंटों से और अन्य कवि , लेखकों से प्राप्त जानकारी के अनुसार आपकी कलम त्रय दशकों से रसगंगा को बहाती आ रही और हम सब पाठकों को रसास्वादन कराकर तारती आ रही है। छन्दिक अनुशासनमय कथ्य , शिल्प एवं विशेषकर अनुप्रास अलंकार की संतुलनमय अभिव्यक्तियाँ एवं अनुभूतियों के सौरभ से मन को अह्लादित करने लगती है । चट्टानों सी गंभीरता, सरिता की अल्हडता ,प्राकृतिक कोमलता, कुल मिलाकर डॉ० भ्रमर दादाश्री आटकी कर्म सौंदर्यता आपके छंद एवं गीतों में स्पष्ट दिखाई देती है । इस उत्कृष्ट काव्यकृति हेतु समालोचना एवं समीक्षा की योग्यता मुझ में तो नही है ,क्योंकि मुझ जैसे अल्पमतियों ने हमेशा आपकी 'काव्य-सरिता' की 'काव्य-धारा' के किनारे पर बैठकर रसपान करते हुए मन को अपार सुखद अनुभूति का अनुभव करते हुए पाया है। यह मेरा सौभाग्य है कि समालोचना एवं समीक्षा हेतु मुझे 'आराधिता' नमक स्व-कृति अपने स्वयं भारतीय डाक विभाग के माध्यम से मुझे प्रेषित किया इसके लिए मैं आपका कैसे आभार व्यक्त करूँ यह समझ से परे है , छंदगुरु डॉ० भ्रमर जी को बधाई के साथ आभार भी व्यक्त करता हूँ ।
और पुनश्च सादर नमन करते हुए 'भ्रमर-कृति' 'अराधिता' की ढेर सारी शुभकामनाएँ और बधाइयाँ देते हुए साहित्य प्रेमियों और साहित्यकारों को बताना चाहूँगा कि यह काव्य संग्रह Book Rivers प्रकाशक के माध्यम से आप तक amazon , Flipkart, के माध्यम से मात्र रु. 250/- में आप को प्राप्त हो जाएगी। मैं 'आराधिता' के कुशल रचनाकार के प्रति अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करते हुए उनके उज्ज्वल भविष्य की प्रभु से कामना करते हुए प्रभु से विनती करता हूँ-
हे प्रभुः! मैं आपको नमन करता हूँ, मैं आज से पठन-पाठन के भयानक सागर में घिरने जा रहा हूँ अर्थात मैं त्रय धार्मिक अंग (विद्या , दान और यज्ञ) करने जा रहा हूँ। सर्वप्रथम आराधित से विद्या प्राप्त करूँगा तत्पश्चात प्राप्त ज्ञान से दान करूँगा एवं अंततः सर्वस्व लेख विधि से यज्ञ कर पुनः आपको समर्पित कर दूँगा।
हे प्रभुः! मैं आपको नमन करता हूँ, मैं आज से पठन-पाठन के भयानक सागर में घिरने जा रहा हूँ अर्थात मैं त्रय धार्मिक अंग (विद्या , दान और यज्ञ) करने जा रहा हूँ। सर्वप्रथम आराधित से विद्या प्राप्त करूँगा तत्पश्चात प्राप्त ज्ञान से दान करूँगा एवं अंततः सर्वस्व लेख विधि से यज्ञ कर पुनः आपको समर्पित कर दूँगा।
माँ गीर्वाणभारती से प्रार्थना है कि आप कंठ विराजमान हों , हे भगवान! मुझे सिखाओ, कि संसाररूपी अराधिता के इस सागर को कैसे पार करना चाहिए, कैसे इसको पूर्ण करूँ और दादाश्री के द्वारा लिखित 108 गीतों की माला जिसमे 218 पृष्ठ एक धागे की भाँति पिरोये हैं उसे धारण कर सकूँ है , मुझमे इतनी शक्ति देना प्रभु।
।।इति आरम्भ्याहम्।।
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आचार्य प्रताप
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